Wednesday, November 25, 2020

लिच्छा



 
कोलकत्ता नाम का कोई रेल्वे स्टेशन नही है. कोलकत्ता जाने वाली ट्रेन हावड़ा स्टेशन पर जाकर रूकती है. हावड़ा से पहले एक स्टेशन आता है लिलुआ. हावड़ा जाते वक्त हमेशा मै लिलुआ को खिड़की से ही देखता था. लिलुआ मे कभी गाड़ी नही रूकती थी. टैन मे साथी यात्री बताते है कि लिलुआ आने के लिए आपको पहले हावड़ा उतरना होगा ओर फिर वहां से लोकल मे लिलुआ आना होगा. मुझे इस मित्र के घर फंक्शन मे लिलुआ जाना था. हावड़ा की टेन मे लिलुआ स्टेशन आया तो बीच मे बड़ा मन हुआ उतरने का पर गाड़ी कहां रुकने वाली थी. गाड़ी तो सीधे हावड़ा जाकर रूकी. हावड़ा स्टेशन से  लोकल मे बैठकर हम लिलुआ आये.

लिलुआ एक छोटा सा जंक्शन है. दो प्लेट फार्म है और एक पुल. मै सामान लेकर पटरियों के ऊपर से आ गया बाकि लोग पुल से नीचे आये. लिलुहा दो भागो मे बंटा हुआ है. स्टेशन के एक तरफ बहुत बड़ा शहर और दूसरी तरफ एक कस्बा. मेरे मित्र  का मकान कस्बे मे था. हम लोग रिक्शा करके मित्र के घर पहुंचे.  मित्र का घर बाजार से थोड़ा दूर था. एक लंबी अंधेरी गली के बाद  मित्र का घर था. हम लोग शाम को पहुंचे थे. 

फंक्शन दो दिन बाद था. रात को बातो की महफिल सजी. देर रात तक मतलब अगले दिन की भोर तक बाते और हंसी मजाक चलती रही. दूसरे दिन शाम को चार बजे नींद से उठे.

मित्र फंक्शन की तैयारी मे व्यस्त था. मित्र का भाई वरूण मेरे साथ था. शाम को वरूण के साथ बाजार घूमने निकला. छोटा कस्बा था इसलिए दुकाने भी छोटी थी. कोई बड़ा शो रूम नही था. वरूण के साथ पैदल चलते चलते स्टेशन तक आ गये. स्टेशन के नजदीक ही एक इडली डोसा का ठेला था. ठेले पर भीड़ बहुत थी जो बता रही थी कि इसका इडली डोस बहुत फेमस है.  हम लोगो ने भी वहां इडली डोसा लिया. इतने स्वादिष्ट इडली बोले पहली बार खाये थे. भरपेट नाश्ता कर लिया था. कस्बा छोटा ही था इसलिए वही से वापिस लौट लिये. रात को भी दुकाने ज्यादा देर तक खुली नही रहती. हम लौट रहे थे तब तक दुकाने बंद होने लगी थी. भेल मुड़ी, फल सब्जी और चाय के ठेले वाले खड़े थे. 

हम घर की तरफ लौट रहे थे. एक बच्ची ने सड़क के बीच मे आकर रास्ता रोक लिया. वह बच्ची बारह तेरह बरस की रही होगी. टी शर्ट और लंबा स्कर्ट पहने थी. बहुत मीठी आवाज मे बोल रही थी.कह रही थी हमारी भेल मुड़ी खाकर जाइये. एक बार खाओगे बार बार खाओगे. लिलुहा की प्रसिद्ध मुड़ी से तैयार भेल मुड़ी. हाथ मे भेल मुड़ी की प्लेट लिए वो मनुहार कर रही थी. हम लोग भरपेट इडली डोसा खाकर आये थे. हम लोगो की भेल मुड़ी खाने की कोई इच्छा नही थी. वो बच्ची बार बार मनुहार कर रही थी. मनुहार करते वक्त वो मुस्कुराती तो उसके गालो मे डिंपल पड़ जाते.  उस बच्ची की किशोरवय मासूमियत देखकर मुझ से रहा नही गया. वरूण के साथ उसके ठेले पर गये. भेल मुड़ी उस बच्ची का बापू बना रहा था. भेल मुड़ी वाकई बहुत स्वादिष्ट थी. ईच्छा नही होने पर भी हमने एक प्लेट खा ली. मैने इतनी स्वादिष्ट भेल मुड़ी कभी खायी नही थी. हम वहां से निकल लिये वो बच्ची फिर से सड़क पर लोगो की मनुहार कर रही थी.

वरूण ने कोलकत्ता घूमने को कहा था परन्तु मेरा मन इस कस्बे मे लग गया था. यहां घूमने को खास नही था परन्तु यहां के लोग प्यारे थे. मित्र और उसका भाई फंक्शन की तैयारी करते तो हम लोग भेल मुड़ी खाने निकल जाते.  उसी ठेले पर. उस बच्ची के ठेले पर. हम लोग ठेले के नजदीक रखी बैंच पर बैठ जाते. वो बच्ची हमारे लिए भेल मुड़ी लाती. मैने उस बच्ची से नाम पूछा. उसने अपना नाम लिच्छा  बताया. लिच्छा मुस्कुराते हुए बहुत प्रेम से भेल मुड़ी खिलाती. लिच्छा के मासूमियत भरे प्रेम से भेल मुड़ी और स्वादिष्ट हो जाती. भेल मुड़ी खाने के बाद हम पैदल घूमते हुए स्टेशन तक निकल जाते. स्टेशन के पास ही एक सिनेमा हाल था. सिनेमा हाल मे कोई ज्यादा भीड़ नही होती थी. सिनेमा हाल के बाहर भी चाय और गोलगप्पो के ठेले लगे होते थे.

दो दिन हो गये थे लिलुहा आये हुए. दो दिन मे क ई बार लिच्छा के ठेले पर हो आया था.कल मित्र का फंक्शन था. तैयारियों जोरो पर थी. मै भी तैयारियो मे हाथ बंटा रहा था. जिस भवन मे कार्यक्रम होना था उसके ठीक सामने ही लिच्छा का ठेला था. जब भी खाली होता लिच्छा के ठेले पर बैठ जाता. लिच्छा और उसके बापू से बाते करता रहता. उसके बापू ने बताया कि लिच्छा स्कूल नही जाती. उनके यहां लड़कियो को स्कूल नही भेजते. लिच्छा उसकी ठेले पर बहुत मदद करती है.

आज फंक्शन था. सुबह से ही बहुत काम था. शाम को खाना था. कोलकत्ता से काफी मेहमान आने वाले थे. बहुत बड़ा शामियाना लगाया गया था. शामियाने को सजाया जा रहा था. जब तक शामियाने को सजाया जा रहा था, मै भवन के बाहर खड़ा था. बाहर लिच्छा खड़ी थी. लोगो की मनुहार कर रही थी. इस समय सड़क पर भीड़ नही थी. यहां दोपहर मे सड़क सुनी हो जाती थी. यहां दोपहर मे सारी दुकाने बंद हो जाती है. कभी कोई सड़क पर आदमी दिखता तो लिच्छा सड़क पर आ जाती. अभी सड़क पर कोई नही था. वो मेरी ओर आयी. मनुहार के लिए हाथ उठाकर रोककर दिए. मैने पूछा- आज मेरी मनुहार नही करोगी.

बाउजी आप तो रोज आते हो. लिच्छा ने कहा.

मैने पूछा - तुम नही खाती हो भेल मुड़ी.

मुझे पसंद नही.

तुम्हे क्या पसंद है.

मुझे तो चकलेट पसंद है बड़ी वाली.

खायी हुई है बड़ी वाली चाकलेट.

हां भाई की शादी मे खायी थी.

भाई अब कहां रहता है.

वो बताने लगी तब तक बापू ने आवाज दे दी. वो ठेले पर चली गयी. मै भी शामियाने की तैयारी देखने भवन मे चला गया. 

शाम को फंक्शन था. कोलकत्ता से काफी मेहमान आये. मेरे मित्र ने मुझे सबसे मिलवाया. मित्र ने खाने मे खास बंगाली मिठाईयां बनवायी. मधुर संगीत के साथ हमने फंक्शन का आनंद लिया.

अभी तीन चार दिन मे लिलुहा मे ही था.  मित्र के साथ कोलकत्ता घूमने चला गया. दो दिन कोलकत्ता मे ही बिताये थे. कोलकत्ता मे खूब चीजे खायी परन्तु लिच्छा की भेल मुड़ी जैसा स्वाद कही नही था. यात्रा का एक दिन और था. भेल मुड़ी कानून के लिए जल्दी से हम लिलुहा आ गये. रात हो चुकी थी. अगले दिन शाम को रवानगी. अगले दिन सुबह भेल मुड़ी खाने के लिए निकला. सोचा कुछ मुड़ी घर के लिए भी ले लुंगा. फिर ख्याल आया कि आज निकल रहे है तो लिच्छा को कुछ गिफ्ट दे आऊं. कस्बे की दुकानो मे बड़ी वाली चाकलेट लेने गया लेकिन कही नही मिली. मित्र ने बताया कि वह चाकलेट स्टेशन के उस पार माल मे मिलेगी. मै मित्र के साथ स्टेशन के उस पार गया. स्टेशन के पार की दुनिया कस्बे की दूनिया से अलग थी. बाजारो मे भीड़. बड़े बड़े माल. मित्र मुझे यहां के प्रसिद्ध सुपीरीयर माल ले गया. यह माल बहुत आकर्षक था. मैने वहां कुछ फोटो भी खींचे. फिर चाकलेट सेक्शन से लिच्छा के लिए एक बड़ी चाकलेट ली. आज शाम की गाड़ी थी. इसलिए जल्दी निकलना था. हम जल्दी से माल से निकलकर स्टेशन आ गये. स्टेशन को पार कर वापिस कस्बे मे आ गये. मै जल्दी से लिच्छा की भेल मुड़ी खा लेना चाहता था. हम जल्दी जल्दी चलकर लिच्छा के ठेले तक आये. लेकिन यह क्या. वहां ठेला नही था. इधर उधर देखा ठेला कहीं नही था. पास की दुकान मे पूछा उसने बताय- दो दिन से ठेले वाला नही आ रहा है. कल उसकी बेटी लिच्छा की शादी थी.

मै हैरान था बच्ची की शादी? मैने फिर पूछा उस लड़की की कि जो उसके साथ ठेले पर काम करती थी. दूकानदार ने कहा - हां. 

उसकी हां ने मेरे पैर जमा दिये. ऐसा लगा हाथ मे पकड़ी हुई चाकलेट पिघल रही थी.

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Monday, August 31, 2020

किस्सा दरवाजे का

मेरा घर बहुत पूराना था. घर मे दो ही कमरे थे. एक आगे और एक पीछे. आगे वाला डड्रांईग रूम था. इसे स्टोर रूम या बैड रूम भी कह सकते थे. हम चार भाई बहिन थे. बड़ा वाला अपनी मस्ती मे इधर उधर घूमता रहता था. हमे लगता कि वो अपने बड़े होने का मजा ले रहा है. हम तीनो घर मे ही रहते थे. मै घर की देहरी पर झुककर बाहर की ओर देखता रहता. मेरी छोटी बहिन देहरी पर खड़े होकर बाहर की तरफ देखती रहती. क ई बार वो फिसलकर गिर जाती. फिर पास के अंकिल उसे उठाकर मां को दे देते. इसलिए मां जब भी खाना बनाती तो वो दरवाजा बंद कर देती. दरवाजा भी घर की तरह पूराना था. दरवाजे मे जगह जगह छेद थे. मां दरवाजा बंद करती तो हम बंद दरवाजे के पीछे बैठे रहते. यहां भी हम खेल कर लेते. दरवाजे के छेदो मे से सुबह सुबह सूर्य की रोशनी एक धार मे आती. सूरज की रोशनी मे हम क ई छोटे छोटे कीटाणुओं को देखते. कभी सूरज की रोशनी की धार मे अंगुली रखते कभी बहते हुए कीटाणुओं को देखते.
यह दरवाजा हमारे लिए हमेशा से ही खेलने का साधन रहा. यह हमारा साथी था. कभी सूर्य ग्रहण होता तो मां घर का दरवाजा बंद कर देती. पापा दफ्तर जाते थे. मां सूर्य ग्रहण के समय अंदर वाले कमरे मे बैठकर माला फेरती. बड़े वाला मां को चकमा देकर अपने दोस्तो के साथ निकल जाता. हम तीन भाई बहिन बंद दरवाजे के पीछे बैठ जाते. हमारे लिए वही दरवाजा खेल बन जाता. दरवाजे के छेद मे से सूर्य की परछाई पड़ती हम हथेली पर ग्रहण वाले सूर्य की परछाई देखते. इस तरह से उस दरवाजे के जरिये हम सूर्य ग्रहण देखते.
दोपहर मे घर मे हम बच्चे अकेले होते थे. पापा अपने दफ्तर मे और मां महराज जी की बेची मे सत्संग मे होती थी. फिर घर पर हम अकेले धमाचौकड़ी मचाते. दोपहर मे कभी कभार घर की मालकिन आती. हमारा घर किराये का था. मकान मालकिन आकर दरवाजे के बीच मे बैठ जाती. फिर हम बच्चो को डांटती रहती. हम बच्चे कोशिश करते कि वह जल्दी से चली जाये. एक दिन दोपहर मे हम छत्त पर खेल रहे थे. भाई ने दूर से ही देख लिया कि मकान मालकिन आ रही है. बड़े वाला भाई थोड़ा ज्यादा ऊधमी था. उसने दरवाजे के एक पल्ले को चूड़ी मे से निकाल कर बीच मे आडा पटक दिया. फिर हम छत्त पर खड़े है गये. बूढ़ी मालकिन लकड़ी के सहारे हमारे घर तक आयी. उसने आडे पड़े हुए दरवाजे के एक पल्ले को देखा और फिर ऊपर हमारी ओर देखा. फिर चली गयी. हम बहुत खुश हुए. भाई ने वापिस दरवाजे का पल्ला चूड़ी मे लगा दिया.
शाम को बाहर चौक मे खेलते वक्त देखा कि पापा घर के बाहर खड़े है. मैने नजदीक जाकर देखा. एक कारीगर बैठा लकड़ी छिल रहा था. मैने पाप से पूछा तह क्या हो रहा है? पापा ने बताया- मकां मालकिन हमारे लिए नया दरवाजा  लगवा रही है. मै उस कारीगर को काफी देर तक देखता रहा. वो बार बार दरवाजे का नाप लेता और फिर लकड़ी छिलने लग जाता. देर रात तक वह काम करता रहा. फिर मेरे को नींद आ गयी. सुबह उठते ही दौड़कर दरवाजे तक गया. अब नया दरवाजा लग गया था. उस दरवाजे मे कोई छेद नही था. मै दौड़कर छत्त पर गया. छत्त पर पुराना दरवाजा पड़ा था. उस दरवाजे को मैने ऊपर से नीचे तक देखा. फिर बंद दरवाजे के पीछे आकर बैठ गया. अब वहां कोई रोशनी नही थी.
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Sunday, August 2, 2020

अनामिका






    मै पहली बार कोलकत्ता जा रहा था। किसी महानगर की मेरी यह पहली यात्रा थी। मेरा सीए के एग्जाम का सेंटर था। पापा ने सेंटर कोलकत्ता का भर दिया था। कोलकत्ता मेरे दूर के रिश्ते के चाचाजी रहते है। पापा ने कहा कि एक महीने पहले चले जाना ओर एक महीने वही रूक कर तैयारी कर लेना। मन मे कोलकत्ता देखने का भी कौतुहल था।  पापा ने कोलकत्ता के बारे मे बहुत सी बाते बताई थी वो सब मेरे माथे मे थी। कहते है कि कोलकत्ता मे दिन तड़के चार बजे ही निकल आता है।इस बात को तो मै अब देख सकता था। गाड़ी तीसरे दिन सुबह 5 बजे हावड़ा स्टेशन पहुंचती है। ट्रेन हावड़ा के नजदीक थी। दिन निकल चुका था । खिड़की से खेतो मे सूरज की किरणे दिखाई दे रही थी। गाड़ी बिलकुल राईट टाईम पर स्टेशन पहुंच गयी थी। जैसा पापा ने कहा था स्टेशन पर बहुत भीड़ थी। प्लेटफार्म लोगो से ठसाठस भरा था। भीड़ मे मै भी अपना सूटकेस और बैग लेकर उतर गया। हावड़ा स्टेशन पर ही आप निजि गाड़ी ला सकते है। प्लेटफार्म के एक किनारे लोगो की निजि गाड़ियां खड़ी थी। लोग अपना सामान गाड़ियो मे रख रहे थे। मै भीड़ मे खड़ा चाचाजी के लड़के की राह देख रहा था। मेरा फोन भी डिस्चार्ज हो गया था। मै अपने कोच के सामने ही खड़ा था। महानगर के  नाम से ही मन मे थोड़ा डर भी था। सोच रहा था कि भाई नही पहुंचा तो मै क्या करूंगा। इसी उधेड़पन मे था कि भाई ने मुझे देख लिया। पहले हम दोनो गले मिले। भाई ने मेरा बैग उठाया और हम चलकर स्टेशन से बाहर आ गये। स्टेशन के बाहर भी बहुत भीड़ थी। हम लोग टेक्सी स्टेण्ड की ओर गये। भाई ने टैक्सी किराये की और हम टैक्सी मे बैठकर घर की ओर रवाना हो गये टैक्सी की खिडकी से मै शहर को देख रहा था। भाई मुझे बता रहा था। हमारी टैक्सी हावड़ा ब्रिज से निकली तो भाई ने बताया कि यह हावड़ा ब्रिज हे जो सबसे पूराना है और बिना किसी खंभे बना है। मै आश्चर्य से हावड़ा ब्रिज देखता रहा। जल्द ही हमारी टैक्सी एक सड़क के किनारे रुकी। टैक्सी से उतर कर हम एक गली मे गये। गली मे दोनो ओर गगनचुम्भी बिल्डिग्स थी। हमलोग इन बिल्डिंग्स को बाड़ी कहा करते है। गली मे एक बाड़ी मे गये। सुन रखा था बाड़ियो मे रहने के लिए छोटे छोटे कमरे होते है और पूरी बाड़ी मे एक दो ही टायलेट होते है। यह सोचकर मै डर रहा था। बाड़ी मे अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा था।हम लोग सीढ़ियो से ऊपर चढ़ते रहे। सीढ़ियो मे एक बल्ब की मद्धम रोशनी आ रही थी। हर एक मंजिल पर लोग रह रहे थे। कोई खाना बना रहा था तो कोई कपड़े सूखा रहा था। हम बसे ऊपर चौथी मंजिल पर आ गये। यह बाड़ी की आखिरी मंजिल थी। यह खुली छत्त थी एक ओर एक लाईन मे पांच कमरे मे थे। यही चाचाजी का घर था। इस छत्त से चारो ओर बड़ी बिल्डिग्स दिखाई दे रही थी। मैने चाचा और चाची के पैर छुए। भाई ने मुझे मेरा कमरा बताया। कमरा इतना था कि उसमे मै केवल सो सकता था। यह जानकर खुशी हुई कि चाचा के स्वंय के टायलेट थे। पहले दिन मैने चाचा और चाची के साथ खूब बाते की। यहां जैसे सुबह जल्दी होती है वैसे ही रात भी जल्दी हो जाती है। मै रात को अपने कमरे मे लेट गया। तभी जोर से किसी लड़की के खिलखिला कर हंसने की आवाज आयी। मै बैठ गया। सामने देखा। एक कमरे मे एक लड़की खिलखिलाकर हंस रही है। मुझे बैठा देखकर भाई आ गया । भाई ने बताया कि ये अनामिका है। ये लड़की अपने भाई और मां के साथ सामने के कमरो मे रहती है। यह बात बात पर खिलखिलाती रहती है। यह विडो है। शादी के पहले ही साल...। कोई नही तुम सो जाओ। मै कुछ देर तक सामने के कमरे मे लड़की को देखता रहा । 
    सुबह आंख खुली तो सामने वही लड़की दिखाई दी और इस बार भी खिलखिला रही थी। मेरा आज कोलकत्ता मे पहला दिन था। मुझे पूरा एक महीना यहा रहना था। पहले दिन नाश्ते मे चाचाजी ने मेरे लिए कोलकत्ता की स्पेशल कचौरी मंगवायी। ये छोटी छोटी बिना मशाले की कचौरिया होती है जिसे आलू की सब्जी डालकर खायी जाती है। पहले दिन चाचा जी ने खाने के बराबर नाश्ता करवा दिया। भाई ने कहा दिनभर आराम करो शाम को घूमने चलेगे। चाचा और भाई दोनो काम पर चले गये। मै अपने कमरे मे। कमरे से दिख रहा था लड़की तैयार होकर अपने कमरे से बैग लेकर निकली। उसने आसमानी कलर की बंगाली साड़ी पहनी थी। अपनी मां को हाथ से बाय बाय करके निकल गयी। मै दिनभर सोता रहा। शाम को भाई जल्दी आ गया। दोनो तैयार होकर कोलकत्ता घूमने के लिए निकले। सीढ़ियो से उतर रहे थे तो सामने वाली लड़की ऊपर चढ़ रही थी। मेने उसकी और उसने मेरी ओर देखा । फिर दोनो आगे चल दिए. सड़क पर बहुत भीड़ थी जैसे लोगो का हुजुम कही जा रहा हो। भाइ ने बताया यहां तो रोज ऐसा ही होता है। सड़क के नीचे मैट्रो थी। सड़क के ऊपर दो पुल थे। दोनो पर ट्रेफिक था। सड़क पर सभी तरह के वाहन घल रहे ते ट्राम भी सड़क पर बिछी पटरियो पर दूसरे वाहनो की तरह ही चल रही थी। हम दोनो सड़क के किनारे खड़े थे। घण्टी बजाती हुई ट्राम आई। हम दोनो भाई ट्राम मे चढ़ गये। ट्रेन के एक कोच की तरह थी ट्राम। कंडक्टर आने पर भाई ने कह दिया दो विक्टोरिया। कंडक्टर ने दो टिकिट काट दिए। मै ट्राम की खिड़की मे से शहर देख रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे किसी गांव से मै बड़े शहर मे आ गया हुं। यह महानगर हर वक्त  दौड़ता रहता है। ट्राम से उतरकर  हम थोड़ी दूर तक पैदल चलकर विक्टोराया पहुंचे।  अ़ग्रेजो द्वारा बनाया गया यह रमणीय स्थल था। विक्टोरिया के अंदर जाकर देखने का समय समाप्त हो चुका था। अंदर पार्क मे रंगीन फव्वारे चल रहे थे। उसके किनारे गोलाई मे बेंचे लगी थी पूरे पार्क मे मद्धम रोशनी थी। लगभग हर बेंच पर लड़के व लड़कियां एक दूसरे के हाथ थामे बैठे थे। हमारे शहर मे ऐसे दृश्यो की कल्पना करना मुश्किल था। हम रंगीन फव्वारो को घूमकर देख रहे थे। एक जगह मे कुछ रूका ।भाई के पीछे देखने पर मै वापिस चल पड़ा। मुझे लगा कि कमरे के  सामने वाली लड़की किसी के साथ बेंच पर बैठी थी। परन्तु भाई के आने पर लगा वैसी ही कोई और लड़की होगी। फिर हम बाहर आ गये। बाहर क ई प्रकार के ठेले लगे थे। हम लोगो ने तरह की चीजे खायी। फिर हम लौट पड़े। आते वक्त हम टैक्सी से आये| घर पहुंचने तक हम थक गये |  मै सोने के लिए कमरे मे चला गया| कपड़े बदलकर लेटने लगा |सामने वाले कमरे मे से फिर खिलखिलाने की आवाज आई। मैने अपनी गर्दन ऊंची करके देखा। अनामिका अपना चेहरा ऊपर करके खिलखिला रही थी। पास में उसका भाई और मां बैठी थी। अनामिका के हाथ मे पानी का गिलास था। जिसका आधा पानी वह पी चुकी थी। हंंसते हुए पानी का गिलास लिये वस बाहर आयी। मेरे कमरे की ओर एक क्षण देखा और वापिस अपने कमरे मे चली गयी। मै कुछ देर अनामिका के बारे मे सोचता रहा । फिर नींद आ गयी।

    मैं यहां भी अपने शहर की तरह ही उठता। यह भूल जाता कि मै कोलकत्ता आया हुआ हूं और यहां दिन जल्दी निकलता है। आज नींद से जागा तब तक बहुत देर हो चुकी थी। चाचा जी और भाई काम के लिए निकल चुके थे। चाची जी घर पर थी। चाची जी ने चाय के लिए पूछा। मैने चाय के लिए हामी भर दी । मै कमरे से निकल कर छत्त के मुंडेर तक आ गया। अनामिका कपड़े सूखाने के लिए आई। उसने कपड़े सूखाते हुए टेढी नजर कर पूछा- घूमने आये हो।
    नही। परीक्षा देने।
    किसकी?
    सीए की।
    कब है।
    इस महीने के लास्ट मे।
    आप आज काम पर नही गयी?
    आज वीकली रेस्ट है। उसने अपने चेहरे पर आये बाल कान के पीछे करते हुए कहा।
    बाते होने लगी तो मैने पूछ ही लिया- आप ह़सती बहुत है।
    क्या आपको हंसने वाले लोग पसंद नही है।
    नही ऐसी बात नही है।
    तो फिर कैसी बात है।
    वो आप जोर........।
    वो मुस्कुराते हुए बोली- तो फिर आपको एसे भी पसंद नही। वैसे भी पसंद नही। कहते हुए खिलखिलती हुई अपने कमरो की तरफ चली गयी. कुछ देर उसे जाते हुए देखता रहा। चाची जी चाय ले आयी थी। मै चाय नाश्ता करने लग गया। दिनभर पढ़ता रहा कही नही गया।
    दो दिन तक मै कही नही गया। तीसरे दिन शाम को भाई मुझे बड़ा बाजार ले गया। हम बाड़ी से नीचे उतर कर सड़क पर आ गये थे। भाई ने एक हाथ रिक्शा वाले को रोका। दोनो रिक्शा मे बैठ गये। हाथ रिक्शा मे बैठने का मेरा पहला अनुभव था। रिक्शा वाला नंगे पांव रिक्शा लेकर दौड़ रहा था। रिक्शे मे एक घंटी लटक रही थी जो रिक्शा चलने पर बज रही थी। और भी रिक्शे दौड़ रहे थे जिस पर मोटे पतले सभी प्रकार के लोग बैठे थे। मुझे यह अमानवीय लग रहा था। पर यहां लोगो की आदत पड़ चुकी थी। बड़ा बाजार से थोड़ा पहले रिक्शा रोका। यहां से पैदल चले। बड़ा बाजार मारवाड़ी व्यापारियो का बाजार है। यहां रोज अरबो रूपयो कि व्यापार होता है। दोनो तरफ दुकानो के आगे फुट बने हुए है। फुट पर छोटे व्यापारी अपना सामान बेचते है। यहां भी बहुत भीड़ थी। यहां सामान थोड़ा सस्ता मिल जाता है। मैने क ई दुकानो से सामान खरीदा। एक जगह हम बैग देख रहे थे। वही से सड़क के उस पार अनामिका चश्मा लगाये हुए भेल मुड़ी खा रही थी। और बीच बीच मे खिलखिला कर हंस रही थी। साथ मे एक हम उम्र लड़का भी था। मै उसे देख ही रहा था कि भाई ने कहा- चलो। मै आगे चल पड़ा।  पीछे गर्दन घूमाकर अनामिका को देख रहा था।  वह भी गोलगप्पे खाते हुए ऊपर की ओर मुंह् करके हंस रही थी। भाई  आगे चल रहा था। भाई के थोड़ा आगे निकलने पर मै तेज चलकर उसके बराबर आ गया। भाई मुझे काली घाट ले गया। यहां बहुत भीड़ थी। लोगो मे जबरदस्त उत्साह था। बंगाली अपने परिवार के साथ आये हुवे थे। हम  दर्शन कर लौट गये। यहां से हम मेट्रो से घर आये । मैट्रो मे बैठने का मेरा पहला अनुभव था। मैट्रो क ई स्टेशनो पर रूकते रूकते चलती। एक स्टेशन पर अनामिका चढ़ी काला चश्मा लगाये हुवे । हमसे थोड़ी दूर की सीट पर बैठ गयी। बैग से मैबाईल निकालकर देखने लगी। मैने सोचा यहां उसके लिए हंसने का कोई बहाना नही है। उसके पास ही एक बच्चा बार बार उसके कंधे का सहारा लेकर खड़ा हो रहा था। वह उसकी तरफ देखकर मुस्कुराती और फिर मोबाईल देखने लग जाती। हमारी बाड़ी वाले स्टेशन पर मेट्रो रूकी। हम लोग उतर गये। भाई मुझे बड़ा बाजार ले गया। जहां पान की दुकान पर उसके दोस्तो का मजमा लगा था। दोस्तो के साथ देर तक गपशप करते रहे। रात को घर आ गये। अब मेरी परीक्षा भी नजदीक आने लगी थी। अब मै जोरशोर से परीक्षा मे जुट गया। पढ़ते वक्त रात को अनामिका की खिलखिलाहट उसके होने का अहसास कराती।  मै पूरी तरह पढ़ाई मे व्यस्त हो गया। दो दिन बाद ही परीक्षा थी परन्तु उसकी खिलखिलाह का ख्याल रहता। आज खिलखिलाट की आवाज आयी नही। परीक्षा नजदीक होने के कारण बाहर जाकर पत्ता करने की फूर्सत नही थी। दूसरे दिन भी आवाज नही आयी तो बाहर की तरफ देखा। वो  आपस मे बातचीत कर रहे थे। कल परीक्षा थी। चाचा ने परीक्षा के बाद रूकने को कहा था। मेरा भी मन रूकने का था। परीक्षा दिन भर थी। जल्दी सुबह परीक्षा के लिए निकलना पड़ा था क्योकि परीक्षा केंद्र पुरलिया मे था। दिनभर परीक्षा देने के बाद शाम को लौटा तो पहली नजर सामने के कमरो पर गयी। परन्तु कमरो मे कोई नही था। कमरो के बाहर एक विवाहित युगल खड़ा था जिनकी गोद मे एक छोटी बच्ची थी। घर पर चाची थी। चाची से सामने वाले कमरो के बारे मे पूछा तो बताया अनामिका का प्रमोशन हो गया। कंपनी ने उन्हे पुरलिया मे एक फ्लैट दिया है। आज वो वहां शिफ्ट हो गये है। यहां नये किराये दार आ गये है। मै कुछ देर अनामिका के बारे मे सोचता रहा। फिर अपने कमरे मे सामान बांधने लगा। चाची ने कहा दो दिन और रूकोगे नही। मैने कहा - नहीं। कल ही निकलना जरूरी है। सामान बांधकर बैठ गया। चाची चाय लेकर आयी। बैठकर चाय पीते हुए सामने वाले कमरे को देख रहा था।

    Wednesday, June 24, 2020

    हम सब के भीतर मौजूद है आनंद


    स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अपने आपको अपने भीतर खोजो। वेदांत मे कहा गया है अहं ब्रम्हास्मि और सोहं्म। मैं ब्रह्म्म हूं और ये वही है। आपने अक्सर महात्माओ को प्रवचन में यह उपदेश देते सुना होगा कि भगवान को अपने भीतर खोजो । कहने का तात्पर्य यह है कि अपने मूल को खेजो जहां हमारी सारी शक्तियां एकत्रित है। इसीलिए हम शक्ति की उपासना करते है। वह हमारा आरंभ बिंदु है। इसे वेदांत में एक बाल की नोक के सौवें हिस्से के बराबर बताया गया है। यही हमारा केन्द्र बिन्दु है जहां से हमारी उर्जा उत्सर्जित होती है। यही हमारा मूल है और इसकी मूल पृवृत्ति आनंद है।

    वेदो में इसे परमानंद बताया गया है। वह सदानंद परमात्मा है। ऐसा कहा गया है। महात्माओ द्वारा अपने प्रवचन में यह कहते सुना होगा जिसने इसे पा लिया उसे और किसी आनंद की जरूरत नहीं है क्योंकि यह स्वयं परमानंद है। इस परमानंद को प्राप्त करने के लिए इसके मूल को खोजना होगा। ये हमारी क्ति का केन्द्र है। इसका मूल स्वभाव आनंद है। इससे निकलने वाली उर्जा आनंदमय होती है। इस उर्जा को हम दूसरी प्रकार की उर्जा में प्रवर्तित करते है लेकिन यह  अपनी मूल प्रवृत्ति बदलता नहीं है। कठोपनिद में कहा गया है एकं रूपं बहुधा यः करोति अर्थात वह वस्तुओे के एक ही रूप् को नाना प्रकार से रूपायित करता है। यह सदा आनंदित रहता है और यही हमारा भी मूल स्वभाव है।

    इसको हम अपने दैनिक जीवन में स्पटतः देख सकते है कि हम अपनी मूल प्रवृत्ति से भटकते नहीं है। हम वापिस लौटकर अपनी मूल प्रवृत्ति पाने का प्रयास करते है। यदि प्रयास नहीं भी करते है तो भी हम स्वतः ही अपने मूल स्वभाव में लौट जाते है। हम अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ते है। हमारे सारे प्रयास आनंद को प्राप्त करने के लिए होते है। यदि हम पैसा कमाते है तोै। यदि हम पैसा कमाते है तो उसका अंतोगत्वा उद्धेय आनंद को प्राप्त करना है। हमारे सारे कर्मो का परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन हर एक मनुय का उद्धेय आनंद को प्राप्त करने का होता है। इसमें यह जरूर हो सकता है कि आम मनुय का उद्धेय इन्द्रियो को तृप्त करने का सुख प्राप्त करने का हो सकता है। लेकिन वे आनंदित होना चाहते है । संसार में सारे व्यापार आनंद प्राप्त करने के लिए है क्योंकि मनुय आनंदति होना चाहता है क्योंकि यह उसकी मूल प्रवृत्ति है।

    इसको इस प्रकार भी समझ सकते है कि मनुय हमें अपनी मूल प्रवृत्ति की और लौटता है और सारे कर्म वह आनंदित होने के लिए ही करता है। फिर दुःख कहां से आता है। दुःख तो हमारी प्रवृत्ति नहीं है। इसीलिए दुःख के बाद मानव पुनः आनंद की ओर लौटता है। हमारे जीवन में अनेक घटनाऐं घटती है जो हमारे मनोकूल नहीं होती है। कई घटनाऐं हमारे जीवन में भूचाल ला देती है। हमारा जीवन दुःख के सागर में डूबा हुआ प्रतीत होता है। हमें चारो ओर निराा और कट ही कट दिखाई देता है। लेकिन इस कटमय समय के गुजर जाने के बाद हम फिर से हंसने बोलने लगते है। हम फिर से आनंदित हो जाते है । हम फिर से अपने मूल स्वभाव में लौट जाते है। ाक, भय और दुःख ये सब हमारे बाहर से आते है। यह हमारे भीतर नहीं है। बाहर की प्रवृत्तियो से हम ाक, भय और दुःख को महसूस करते है। दुःख हमे ाक्तिाली लगता हैै। ऐसा लगता है कि हमारे लिए संसार में कट के अलावा कुछ नहीं है लेकिन देखते है कि ऐसा कहने और सोचने वाले मनुय को कुछ समय बाद खु होता देख सकते है।


    हम प्रतिदिन भगवान का स्मरण करते है। भगवान परमानंद है और हम उस परमानंद को पाना चाहते है। हम चाहते है हमारे जीवन में जो भी चीजे हो वो आनंद देने वाली हो। जीवन में सुख प्राप्त करने का आाय ही आनंदित होना है। सुख क्षणिक नहीं है बल्कि दुख क्षणिक है। हमारा जीवन का अधिकां हिस्सा आनंदमय होता है और दुख का हिस्सा बहुत कम होता है। इसलिए हमें इस चीज को समझना चाहिए कि हमारा मूल स्वभाव आनंद है। इसीलिए हमे अपने आपको अपने भीतर खोजना चाहिए। यदि हमने अपने आपको खोज लिया तो हम सदानंद हो जायेंगे। फिर हमे आनंदित होने के लिए अपने बाहर की क्रियाओ पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा।यदि हम पैसा कमाते है तो उसका अंतोगत्वा उद्धेय आनंद को प्राप्त करना है। हमारे सारे कर्मो का परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन हर एक मनुय का उद्धेय आनंद को प्राप्त करने का होता है। इसमें यह जरूर हो सकता है कि आम मनुय का उद्धेय इन्द्रियो को तृप्त करने का सुख प्राप्त करने का हो सकता है। लेकिन वे आनंदित होना चाहते है । संसार में सारे व्यापार आनंद प्राप्त करने के लिए है क्योंकि मनुष्य आनंदति होना चाहता है क्योंकि यह उसकी मूल प्रवृत्ति है।

    इसको इस प्रकार भी समझ सकते है कि मनुष्य हमें अपनी मूल प्रवृत्ति की और लौटता है और सारे कर्म वह आनंदित होने के लिए ही करता है। फिर दुःख कहां से आता है। दुःख तो हमारी प्रवृत्ति नहीं है। इसीलिए दुःख के बाद मानव पुनः आनंद की ओर लौटता है। हमारे जीवन में अनेक घटनाऐं घटती है जो हमारे मनोकूल नहीं होती है। कई घटनाऐं हमारे जीवन में भूचाल ला देती है। हमारा जीवन दुःख के सागर में डूबा हुआ प्रतीत होता है। हमें चारो ओर निराा और कट ही कट दिखाई देता है। लेकिन इस कटमय समय के गुजर जाने के बाद हम फिर से हंसने बोलने लगते है। हम फिर से आनंदित हो जाते है । हम फिर से अपने मूल स्वभाव में लौट जाते है। शोक, भय और दुःख ये सब हमारे बाहर से आते है। यह हमारे भीतर नहीं है। बाहर की प्रवृत्तियो से हम शोक, भय और दुःख को महसूस करते है। दुःख हमे शक्तिशाली लगता हैै। ऐसा लगता है कि हमारे लिए संसार में दुख के अलावा कुछ नहीं है लेकिन देखते है कि ऐसा कहने और सोचने वाले मनुष्य को कुछ समय बाद दुखी होता देख सकते है।

    हम प्रतिदिन भगवान का स्मरण करते है। भगवान परमानंद है और हम उस परमानंद को पाना चाहते है। हम चाहते है हमारे जीवन में जो भी चीजे हो वो आनंद देने वाली हो। जीवन में सुख प्राप्त करने का आाय ही आनंदित होना है। सुख क्षणिक नहीं है बल्कि दुख क्षणिक है। हमारा जीवन का अधिकां हिस्सा आनंदमय होता है और दुख का हिस्सा बहुत कम होता है। इसलिए हमें इस चीज को समझना चाहिए कि हमारा मूल स्वभाव आनंद है। इसीलिए हमे अपने आपको अपने भीतर खोजना चाहिए। यदि हमने अपने आपको खोज लिया तो हम सदानंद हो जायेंगे। फिर हमे आनंदित होने के लिए अपने बाहर की क्रियाओ पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा।


    Wednesday, June 10, 2020

    रोटी नाम सत है- हरीश भादाणी





    रोटी नाम सत है
    खाए से मुगत है

    ऐरावत पर इंदर बैठे
    बांट रहे टोपियां
    झोलिया फैलाये लोग
    भूग रहे सोटियां
    वायदों की चूसणी से
    छाले पड़े जीभ पर
    रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है
    रोटी नाम सत है
    खाए से मुगत है

    बोले खाली पेट की
    करोड़ क्रोड़ कूडियां
    खाकी वरदी वाले भोपे
    भरे हैं बंदूकियां
    पाखंड के राज को
    स्वाहा-स्वाहा होमदे
    राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है
    रोटी नाम सत है
    खाए से मुगत है

    बाजरी के पिंड और
    दाल की बैतरणी
    थाली में परोसले
    हथाली में परोसले
    दाता जी के हाथ
    मरोड़ कर परोसले
    भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है
    रोटी नाम सत है
    खाए से मुगत है

    Monday, June 1, 2020

    भूरा

    मेरा अधिकांश बचपन नानी के पास बीता है। नानी के पास बचपन बिताने का आप यह मतलब कतई ना निकाले कि मेरे घर मे या मेरे साथ कोई समस्या थी। नानी के पास हमे सब कुछ करने की आजादी होती थी या यूं कहे नानी हमे प्यार ही इतना करती थी कि हम अपना ज्यातर समय नानी के साथ ही बिताते थे। हमारा घर और नानी का घर कोई ज्यादा दूर नही था। कभी घर पर रहने की ईच्छा होती तो दौड़कर घर चले जाते थे। कभी दौड़कर नानी के घर पहुंच जाते थे। 

    नानी का घर हमारे लिए खुला मैदान था। हम अपनी मर्जी से खेलते थे और पढ़ते भी अपनी मर्जी से। नानी के यहां मेरे भाई बहिन और मेरी मौसी के भाई बहिन सभी इकट्ठे होकर धमाचौकड़ी करते थे। एक दूसरे पर तकिये फेंकना और एक दूसरे पर गिर जाना जैसे काम तो जमकर करते थे । कभी नाना धीरे से आकर बिना आवाज किए चुपचाप आकर खड़े हो जाते। उनकी आंखे देखकर हम जहां जिस स्थिति मे खड़े होते वैसे ही खड़े रह जाते। नाना बोलने के लिए अपने होठ खोलते उससे पहले ही नानी की आवाज आती खेलने दो। दो घड़ी ही तो खेलते है। नानी की आवाज सुनकर नाना अपने कमरे मे चले जाते।
    हम सब बच्चो मे सबसे पहले मेरी नींद खुलती।  नानी पास के बाड़े मे पौधौ को पानी दे रही होती। मै भी उनकी मदद मे लग जाता। सर्दी मे नानी एक तपेले मे पानी गरम करती थी । मै बाड़े मे लकड़िया इकट्ठी करता और नानी के निर्देशो के अनुसार उन्हे जलाकर उसके ऊपर पानी का तपेला रखता। फिर नानी मेरे को चाय बनाने को कहती। मै अपनी और नानी की चाय बना लेता। सुबह सुबह मै और नानी खुले आंगन मे बैठकर दोनो चाय पीते। पहले घरो मे आंगन खुला होता था। आज की तरह बंद नही होता था। सुबह की ठंडी हवा मे मै नानी से खूब बाते करता। एक दिन मै और नानी बाते कर रहे थे तो एक बिल्ली का बच्चा हमारे पास आकर बैठ गया। मैने उसे अपने पैर की धमक से भगा दिया। नानी ने मेरे को डांटते हुए कहा ऐसे नही भगाना चाहिए।बेचारे कुछ खाने की आस से आया होगा। वो फिर आया तो नानी ने रोटी का टुकड़ा मंगवाया। उसके छोटे छोटे टुकड़े करके उसके सामने फेक दिए। बिल्ली के बच्चे ने उन्हे सुंघ कर छोड़ दिये। नानी के कहा - एक कटोरी मे दूध ला। मैने दूध लाकर दिया। नानी ने वो कटोरी उस बच्चे के सामने सरका दी। वो अपनी जीभ से सारा दूध चट कर गया। दूध खत्म होते ही उसने नानी की ओर देखा और भाग गया। 
    अगले दिन सुबह हम फिर आंगन मे बैठे चाय पी रहे थे तो वह बिल्ली का बच्चा आया। नानी ने दूध की कटोरी मंगवायी और उसके सामने सरका दी। आज फिर वो चट करके भाग गया। उसके जाने के बाद नानी संतुष्टि के साथ चाय पीती। यह रोज का सिलसिला हो गया। रोज सुबह वो आता और नानी एक कटोरी दूध उसे देती। अब वो हम दोनो से हिलने मिलने लगा था। भूरे रंग का  था बीच मे सफेद धारिया थी। आंखे उसकी चमकदार थी। वो अपने कान खड़े कर पहले मेरी तरफ देखता फिर नानी के पास आकर बैठ जाता। अब तो वो नानी की गोद मे आकर बैठने लगा था। नानी उसके माथे पर हाथ फेरती रहती। वो गोद मे बैठा मुझे देखता रहता मानो मुझे चिढ़ा रहा हो।  शाम को नानी खाना बनाती तो वह रसोई के आगे आकर बैठ जाता। नानी रोटी पर घी लगाकर टुकड़े करके उसके सामने रख देती। घी से चुपड़ी हुई ताजी रोटी वो खा लेता परन्तु बासी रोटी के मुंह नही लगाता।  नानी कमरे मे आकर बैठती तो वो आकर नानी के पैरो के पास बैठ जाता । वो नानी के पैरो के नजदीक बैठा अपने कान खड़े करके नाना को देखता रहता। जब नानी इधर उधर होती तो नाना उसे फटकार लगाकर भगा देते। एक बार नानी ने उनको फटकार लगाते हुए देख लिया तो नाना से लड़ पड़ी और कह दिया आप इसे फटकार मत लगाया करो। यह भी जीव है। अब वह नानी के और नजदीक हो गया। नानी अब उसे भूरा नाम से पुकारने लगी। धीरे धीरे यह नाम सब की जबान पर चढ़ गया। अब भूरा दिन मे कभी भी आ जाता। गर्मियो मे नानी के पास कूलर के आगे बैठ जाता। दिनभर कूलर के सामने बैठा रहता। घर मे कोई मेहमान आता तो हमसे कहता -  बच्चो अब नानी का पहला प्यार भूरा हो गया है। अब नानी के लाड मे तुम्हारा दूसरा ऩबर है।   
    एक दिन मेरे मामा की बुआ आई। वो भूरा को देख बहुत खुश हुइ। कहने लगी - ये तो आपका तीसरा बेटा हो गया। देखो यह तो आपको छोड़ता ही नहीं है। बुआजी को देखकर भूरा नानी की गोद मे दुबक जाता। नानी कहती - मै तो इसे कभी बुलाती नही, यह खुद ही मेरे पास आकर बैठ जाता है। बुआजी भूरा को देखती रही। फिर कहा - भाभी जी दो दिन के लिए इसे मेरे को दे दो। मेरे यहां चूहे बहुत हो गये है। दो दिन के बाद मै लौटा दूंगी। नानी संकोच वश अपनी ननद को मना नही कर सकी।  बुआजी ने एक खाली थैला मंगवाया और भूरा को पकड़ने लगी। बुआ के आगे हाथ बढ़ाते ही भूरा भाग जाता। बुआ भी उसका पीछा करती रही।  फिर वह छिपकर खड़ी हो गयी। ज्यो ही भूरा वापिस आया, बुआजी ने पकड़ लिया। बुआजी के पकड़ते ही वो जोर जोर से म्यांउ म्यांउ चिल्लाने लगा। वो रोने ही लगा था। बुआजी ने उसे थेले मे डाल लिया। थैले मे हाथ पैर मारने लगा। नानी जी कुछ देर तो यह सब देखती रही। थैले मे उसे तड़पते देख नानी से रहा नही गया। नानी ने कहा- जीजी। आप इसे छोड़ दो। इसे तड़पाओ मत । मै शाम को किसी के साथ भेज दूंगी। बुआजी यह सुनते ही नाराज हो गयी। कहने लगी - आप तो ऐसे कर रही है जैसे यह कोई आपकी कोख से पैदा किया बच्चा हो। कोई अपने कोख के बच्चे के लिए भी ऐसा नही करती। बुआजी ने भूरा को थैले मे से निकाला और वही छोड़ दिया। बड़बड़ाते हुए चली गयी।  उसे जाता देख नाना भी नानी जी पर नाराज हो गये लेकिन नानी जी चुपचाप अपनी गोद मे सिमट कर बैठे  भूरा के कारण पर हाथ फेर रही थी।
    अगले दिन सुबह मै और नानी आंगन मे बैठे चाय पी रहे थे। आज भूरा नही आया। हमने चाय पी ली।फिर भी भूरा नही आया। नानी ने मेरे को कहा देख कर आ ।  मै बाड़े मे गया। भूरा दिखाई नही दिया। मैने नानी से कहा - वहां तो नही है। नानी ने कहा डरा हुआ हैः कही छिप के बैठा है। आ जायेगा। दोपहर हो गयी भूरा फिर भी नही आया। नानी ने भूरा की चिंता मे खाना भी ठीक से नही खाया। नानी थोड़ी अनमनी हो गयी थी। भूरा का इंतजार करते शाम हो गयी। भूरा नही आया। हमने इधर उधर चारो तरफ देखा। भूरा नही मिला। नानाजी के कहने पर हम बुआजी के घर पर भी देखकर आये परन्तु भूरा वहां भी नही था। नानी आज खाना बनाने रसोई मे भी नही गयी। कमरे मे कुर्सी पर बैठी थी। हम ढुंढने जाते तो हमारा इंतजार करती। हम सभी जगह ढुंढ कर आ गये। भूरा की कोई खबर नही मिली। नानी मौन हुई कुर्सी पर बैठी थी। किसी से बात नही कर रही थी। कमरे मे एक खिड़की बाहर सड़क पर थी। बाहर मेरा बड़ा भाई बाहर खड़ा था। पास के दुकादार से बात कर रहा था।  बात भूरा के बारे मे होने लगी तो हमने कान लगा लिये। नानी भी सतर्कता के साथ बात सुनने लगी। भाई कह रहा था कि भूरा नही मिल रहा है। दुकानदार ने पूछा- भूरा कौन? भाई ने कहा- बिल्ली का बच्चा। 
    वो ही तो नही था। भूरे कलर का।
    हां।
    अरे। वो तो आज सुबह ही सड़क पर दौड़ता हुआ आया और एक जीप ने कुचल दिया।
    यह सुनते ही नानी ने अपना पल्लू अपने चेहरे पर रख लिया। ऐसे लगा किसी ने सटाक की आवाज के साथ कोई चीज तोड़ दी। नानी के पने पल्लू से आंखे पोंछ रही थी। हम बच्चे नानी को देख रहे थे।
    • ---


    Sunday, May 17, 2020

    नंदकिशोर आचार्य अध्यात्म के कवि है


    नंदकिशोर आचार्य नाटक, निबंन्ध और कविताऐ लिखते है। मुझे उनकी कविताऐ बहुत पसंद है। मेरी नजर मे वे अध्यात्म के कवि है।  ऊन्होने एक इंटरव्यू मे कहा था कि भारत मे मृत्यु को भी आशावादी दृष्टिकोण से देखा जाता है। मृत्यु भारतीयो के लिए एक उत्सव है। यह सब उनकी कवाताओ मे मिलता है। प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही दो कविताऐ-

    (1)
     साधु ने भरथरी को
    दिया वह फल—
    अमर होने का

    भरथरी ने रानी को
                दे दिया
    रानी ने प्रेमी को अपने
    प्रेमी ने गणिका को
    और गणिका ने लौटा दिया
    फिर भरथरी को वह
    — भरथरी को वैराग्य हो
                        आया

    वह नहीं समझ पाया:
    हर कोई चाहता है
    अमर करना
    प्रेम को अपने ।
    (2)
    अन्धेरा घना हो कितना
    देख सकता हूँ मैं
               उसको

    कभी अन्धा लेकिन कर देता है
                                सूरज
    कभी पाँखें जला देता है

    बेहतर है मेरी अँधेरी रात
    न चाहे रोशनी दे वह
    दीखती रहती है

    आकाश में गहरे कहीं मेरे
    वह तारिका मेरी ।

    Saturday, April 25, 2020

    किस्से पतंगबाजी के

    अक्षय तृतीया को हमारे शहर मे खूब पतंगबाजी होती है। पतंगबाजी भी ऐसी कि दुनिया के बड़े बड़े पतंगबाज भी अपनी अंगुलियां दांतो मे फंसा लेते है। जितनी पत़गबाजी उतने ही पतंगबाजी के किस्से। हर उम्र का अलग किस्सा। किस्सा भी ऐसा कि सिकंदर और पौरस की लड़ाई का किस्सा भी पीछे रह जाये। दिनभर पतंगबाजी करते शाम को सारे पंगत बनाकर बैठ जाते। बड़े बुजुर्ग अपनी पतंगबाजी के हुनर का किस्सा हमे बताते। हम अपने हाथो की अंगुलियो पर हाथ टिकाकर एक एक बात सुनते।
    मै कोई सात बरस का रहा होउंगा। मेरा भाई पांच बरस का होगा। पतंगे तो हमारा जैसे जीवन थी। पतंग लूटना, उड़ाना और किस्से सुनना और सुनाना सब हमारे शौक थे।  हमारी छत्त बहुत लंबी थी। मैदान जितनी लंबी। छत्त पतग उड़ाने के बिलकुल मुफीद थी। हम भाई भाई छत्त पर खूब पतंगे लूटते और उड़ाते। छोटे थे तो बड़ी पतंग कभी उड़ाई नही थी। उड़ाने से डर भी लगता था। कभी कभार कोई बड़ी पतंग पकड़ते तो हाथ कटने का भय रहता। एक बार अक्षय तृतीया से दो दिन पहले की एक सुबह की बात है। मै अकेला छत्त पर पतंगे देख रहा था कि मेरे कान के पास मांजे की सरसराहट हुई।  मैने हाथ से झटका दिया। मांजा हाथ मे आ गया। मांजे मे भारीपन महसूस हुआ। मै कुछ समझ नही पाया। दोनो हाथो से मांजे को पकड़ लिया। लगा कोई पतंग है। पर पतंग दिखाई नही दी। मै इधर उधर देखता रहा। नीचे गली से आवाज आई भतीजे पतंग है। मैने देखा दूर ऐक काले रंग की पतंग दिखाई दे रही थी। मैने महसूस किया पतंग की डोर मेरे हाथ मे है। इतनी दूर पतंग उड़ाकर पहुंचाना मेरा सपना था। आज सचमुच इतनी दूर की पतंग मेरे हाथ मे थी। बिलकुल बिंदी जैसी पतंग दिखाई दे रही थी। पतंग पकड़े कभी पैर आगे करता तो कभी पीछे। यह सुना था कि इतनी दूर तक गयी पतंगे छोटे बच्चो को साथ ले जाती है। यह डर भी मन मे लग रहा था। मैने भाई को जोर से आवाज लगायी। भाई ने सुना नही। मे कभी उछलता.सभी पैर पटकता। जैसे मैने कोई.शेर पकड़ लिया। नीचे से फिर आवाज आयी। भतीज मुझे दे। मैने नीचे देखा। पड़ोस वाले अंकिल थे। मैने मांजे का एक छोर नीचे कर दिया। अंकिल ने पतंग की डोर पकड़ ली। मै दौड़कर नीचे गया।  अ़किल पतंग उतारने लगे। मेरे चेहरे पर किसी युद्ध के जीतने की गौरान्विती थी। मै मांजे की लच्छी कर रहा था। अंकिल पतंग उतार रहे थे। मै लच्छी करते थकने लगा था। आस पास कुछ लोग इकट्ठे हो गये। मेरे द्वारा इतनी बड़ी पतंग लूटने की बात सुनकर आश्चर्य कर रहे थे। अब पतंग काफी नजदीक आ गयी थी। बहुत बड़ी पतंग थी। हम उसे चौगी पतंग  कहते थे। हमारे यहां इतनी बडी पतंग.बड़े बड़े पतंगबाज ही उड़ाते थे। पतंग को देखकर मेरा छोटा सा सीना चौड़ा हुए जा रहा था। अब थोड़ी देर मे पतंग मेरे हाथ मे आने वाली ही थी। बहुत बड़ी पतंग थी। अंकिल का हाथ भी थकने लगा था। मै भी भाई की बाट देख रहा था। वै चरखी लावे तो मै मांजा उसमे लपेटु। पतंग अब काफी नजदीक थी। अंकिल दूसरी पतंगो से बचाकर उसे उतार रहे थे। अभी उतार ही रहे थे कि एक दूसरी पतंग ने मेरी पत़ंग फर्राट से काट दी। अंकिल हाथ मे धागा लिये असहाय से कभी मुझे कभी पतंग काटने वाली पतंग को देख रहे थे। जिस.पतंग ने हमारी पतंग को काटा वो राक्षस की तरह हमारे ऊपर सरसराट करते हुए उड़ रही थी। मै अपना मुंह ढिला किये सबको देख रहा था।
    ऐसे ही किस्से हम गालो पर अंगुलिया टिकाये सुनते थे।

    Friday, April 17, 2020

    लॉक डाउन का एक दिन

    लॉक डाउन का एक दिन
    इन दिनो भोर अलग तरह की होती है। पौ फटते ही चिड़ियो की कलरव सुनाई देने लगती है। वैसे तो भोर मे हर रोज ही वातावरण निर्मल होता है परन्तु इन दिनो पानी की तरह स्वच्छ और निर्मल है। लाक डाउन के कारण वाहनो का धुआँ और चीं पो न के बराबर है। इन दिनो मेरी छत्त पर वो  पक्षी भी आ जाते जो कभी इस शहर मे नही देखे गये। कल दो तोते आये हुए थे। दोनो गुलाब के पौधे पर बैठ गये थे।बहुत मनोहर दृश्य बन पड़ा था। छत्त से देखता हूं तो एक या दो दूध वाले अपने वाहनो पर फिरते दिखाई  देते और कोई नही होता है।

    मै अपने नित्य कर्म, पूजा पाठ, योग ध्यान करने के बाद आफिस की ओर निकलता हूं। वैसे तो लाक डाउन के कारण सारे सरकारी कार्यालय बंद है परन्तु मै जिला प्रशासन मे कार्यत हूं इसलिए जाना पड़ता है।  सड़क पर एका दुक्का लोग होते है। सारी दुकाने बंद है मानो किसी बेहोशी की हालत मे हो।  दुकानो के आगे की चौकियो पर कुछ कबूतर बैठे है जो एक दूसरे के साथ अठखेलिया कर रहे है। हवा चलने पर सड़क पड़े कूड़े मे पड़ी पालिथिन की थैलियां उड़ने लगती है। दूर दूर तक सड़क बिलकुल खाली  दिखाई देती है ऐसा लगता है जैसे शहरवासी शहर छोड़कर कहीं चले गये है। थोड़ी दूर चलते ही जस्सूसर गेट पर कुछ पुलिस वाले खड़े है। कुछ पुलिस वाले एक दुकान की लम्बी चौकी पर छाया मे बैठे है। दस बजे तक धूप तेज हो जाती है। सड़क पर गिर कर चमकती है। कहीं से कोई आवाज नही आ रही। सड़क पर चहलकदमी कर रहे पुलिस के सिपाहियो के जूतो की आवाजे सुनाई दे जाती है। दो मेडिकल की दुकाने खुली हुई। उस पर भी एक दो आदमी ही दवाई खरीद रहे है। आगे पुलिये पर चढ़ता हूं तो पूरा पुलिया किसी लंबे गलियारे की तरह दिखता है। पुलिये के ऊपर से आस पास के घरो की खाली छत्ते दिखाई देती है।   एसा लग रहा था जैसे एक साथ कई छत्ते धूप मे सूख रही है।  पुल से उतरते ही खाली पड़ा फड़ बाजार दिखाई देता् है। सामान्य दिनो मे फड़बाजार मे पैर रखने को जगह नही होती है परन्तु इस समय बिलकुल विरान है। फड़ बाजार के मार्ग के खड्डे और बड़े बड़े पत्थर  साफ दिखते है। तेज हवा के साथ कचरे मे पड़े कांदो के छिलके उड़ने लगते है। कुछ गाये बैठी ऊंघ रही है। आगे कुछ दूरी पर चलने पर हैड पोस्ट आफिस  के पास पुलिस वाले खड़े है। खाली सड़क पर आने वाले एक दुक्का लोगो पर नजर रख रहे है। मै उनके पास पहुंचता हुं तो मेरे  को रोकते है। मै रूककर अपने आफिस का कार्ड बताता हुं तो वे मेरे को जाने देते है। आगे हनुमानजी का मंदिर है। इस समय लाक डाउन के कारण शहर के सारे मंदिर बंद है। यह मंदिर भी बंद है। आगे लोहे की् ग्रिल के गेट बने हुए है। इस ग्रिल मे से हनुमान जी की छवि दिखाई दे जाती है। दो चार लोग उस ग्रिल मे से दर्शन कर रहे थे। मंदिर के आगे और कोई नही था।  मंने भी अपनी बाईक रोककर हनुमान जी के दर्शन किए। हर रोज आफिस जाते वक्त मै हनुमान जी के दर्शन करता हुं। फिर आगे निकलता हुं। आगे सड़क के किनारे जूनागढ़ के आगे विज्ञापनो के बड़े बड़े होर्डिग्स लगे है। होर्डिग्स ऐसे लग रहे जैसे वे खाली सड़क को देख रहे है। आगे सार्दुलसिंह जी सर्किल है जहां पर सार्दुशसिंह जी की मूर्ति  कोटगेट तक खाली सड़क को देखती हुई प्रतीत होती है।   सार्दुलसिंह सर्किल से निकलते ही मेरा आफिस आ जाता है। जिला कलक्टर कार्यालय।
     आफिस के कुछ गाड़ियां और बाईक्स खड़ी है।इनमे कुछ गाड़ियो पर लाल बत्ती लगी है। ये कलक्टर और दूसरे अधिकारियो की गाड़ियां है। मै अपनी बाईक्स खड़ी करके आफिस की सीढ़ियां चढ़ता हुं। सबसे पहले रसद विभाग है जहां दस बारह लोग काम मे लगे हुए। तीन-चार  लोग कम्पयूटर पर काम कर रहे है।  एक कर्मचारी फोन अटेण्ड कर रहा है। एक फोन आता है कि मुक्ताप्रसाद नगर मे चार लोग कल से भूखे बेठै है। कर्मचारी तुरंत सम्बन्धित को बताता है। पीछे वाले कमरे में से दो कर्मचारी खाने के पैकेट लेकर बाहर आते है और गाड़ी मे बैठकर खाना पहुंचने के लिए निकल पड़ते है। दिनभर यहां ऐसे ही चलता है। फिर मे ऊपर अपने विभाग मे चल पड़ता हुं। पूरे रास्ते शांति पड़ी है लेकिध मेरे विभाग मे आपाधापी मची हुई है। कोई सरकार को सूचना ईमेल कर रहा है। कोई मीटिंग की तैयारी कर रहा है। कुछ लोग पीबीएम अस्पताल से सूचना  ले रहे है। दूसरे कमरे मे कर्मचारी लोगो के पास जारी कर रहे है।  ये विभाग चौबीस घंटे काम करते है। घर मे लोक डाउन मे लोग जहां समय बिताने के बहाने ढुंढ रहे होते है वही यहां कर्मचारियो को खाना खाने के लिए समय नही मिल पा रहा है। मेरे को भी एक सूचना तैयार करने के लिए कहा जाता है। मै जुट जाता हूं सूचना तैयार करने मे। काम करते करते कब शाम हो जाती है पता ही नही चलता है। फोन  से सूचनाऐ लेकर मैने एक बड़ी सूचना तैयार की तब तक  आठ बज चुके थे। मैने घर निकलने की तैयारी कर ली। अपना बैग उठाया और नीचे अपनी बाईक पर आ गया.

     आसमान मे तारे निकल चुके थे। मेरे आफिस के आगे अभी भी गाड़िया और बाईक्स खड़ी थी। कुछ गाड़िया आ भी रही थी। आम दिनो मे रात को आठ बजे  सार्दुलसिंह सर्किल के आगे रौनक रहती है। इन दिनो इस समय ऐसा लग रहा है जैसे रात के दो बजे है। सर्किल से कोटगेट को साफ देख सकते है।    पुलिस के सिपाही रास्ते मे खड़े है। इस बार मेरे गले मे आफिस का आईडन्टी कार्ड लटका होने से मुझे नही रोका। जाते वक्त मे कोटगेट होकर जाता हुं। बंद पड़ी दुकानो के बी मे निसंग सा जाता हुं। कुछ दुकानो के छपरे की छाया सड़क पर पड़ रही है। दुकानो के आगे एक दो कुत्ते चल रहे है।आसमान मे चांद चमक रहा था। रोड़ लाईटो के बीच चादनी भी सड़को पर पड़ रही थी। पूरी सड़क पर सन्नाटा पसरा था। कही दूर से कुत्तो के भौंकने की आवाजे आ रही थी। कभी किसी चमगादड़ की आवाज भी आ जाती है। ऐसा लग रहा है में किसी जंगल मे से निकल रहा हुं।  दिमाग मे भी एकांत और आशंकाऐ विचरण कर रही है। तभी सामने से एक एंबुलस निकलती है। मै जाती हुई एंबुलेस को देखता हुं। मेरी देह कांप जाती है। एक महामारी ने जीते जागते शहर को वीरान कर दिया। आगे कोटगेट, जोशीवाड़ा सब जगह अर्धरात्री का सन्नाटा है। मेरा शहर जो रात को भी जागता है। उसी सड़को पर वीरानी है। बदहवास से जानवर घूम रहे है। मै खाली सड़को पर चलता हुआ घर पहुंच गया। इस तरह बीतता है  लोक डाउन मे मेरा दिन।

    Friday, January 17, 2020

    हैयर सैलून


    मै आज भी बाल कटवाने डेढ महीने के बाद ही जाता हु। मेरा हेयर सैलून वाला हर बार कहता है साहब आप हमारे साथ अन्याय करते है। एक दाम मे तीन बार के बाल कटवा लेते हो। मै हर बार मुस्कुरा देता हुं। मै बरसो से एक ही सैलून मे बाल कटाता हूं। कई बार चाहा कि सैलून बदल लूं लेकिन मेरे कदम मेरे रेगुलर सैलून की ओर चले जाते है। मैने कभी उसको नही कहा कि मेरे बाल इस.तरह से काटना। वो बाल काट देता है और मै बाल बनाकर वापिस घर आ जाता हूं। मुझे याद नही कि  मै कब से इस सैलून मे बाल कटवा रहा हूं। कालेज के दिनो से मै एक ही सैलून मे बाल कटवा रहा हूं।
    इससे पहले हम लोग अपने पूराने घर के नजदीक राजु नाई के सैलून मे बाल कटवाते थे। सैलून क्या थी दुकान थी। वो आज के सैलून की तरह अत्याधुनिक नही थी।
    राजु नाई की सैलून मेरे मामाजी के घर के ठीक नीचे थी।  उसने अपनी दुकान मे अमिताभ, धर्मेन्द्र,  जितेन्द्र और शत्रुघ्न सिन्हा के.फोटो लगा रखे थे। लोग आते और फोटो देखकर बता देते कि उन्हे कैसी कटिंग करवानी है। वो वैसी ही कटिंग बना देता। हम बच्चे लोग भी अमिताभ बच्चन जैसी कटिंग करवाना चाहते थे। मै क ई बार राजु से कहता मेरी भी अमिताभ की तरह कानो के ऊपर बाल वाली कटिंग बना दे तो वो कहते पहले तेरे पापा से पूछ लूं। ऐसा कहते ही हम चुपचाप बाल कटवा लेते। उसकी दुकान मे मायापुरी पत्रिका पड़ी रहती थी। बाल कटवाने के लिए अपनी बारी का इंतजार करते लोग मायापुरी पढ़ते.रहते। मुझे मायापुरी मै मगर हम चुप रहेंगे कालम अच्छा लगता। मायापुरी का नया अंक आते ही मै राजु की सैलून मे जाकर उसे पढ़ता। 
    उस जमाने महिलाओ के लिए ब्यूटी पार्लर.नही हुआ करत थे। इसलिए महिलाऐ कभी सैलून मे नही आती थी। परन्तु राधिका अपने भतिजो के बाल कटाने राजु की दुकान पर आती थी।  राजु भतिजे के बाल काटता और वो मायापुरी पढ़ने बैठ जाती। बाल काटते हुए राजु को आईने मे राधिका दिखाई देती थी। बाल पीछे बांधकर जुड़ा किये हुए वो तन्मयता से मायापुरी पढ़ती थी लेकिन बीच बीच मे नजर उठाकर भतीजे की बाल कटवाई पर भी ध्यान देती। राजु बाल ज्यादा छोटे मत कर देना, ऐसी हिदायते देती रहती थी। राजु भतीजे से मस्ती करता बाल काटता रहता था। बालकाटकर राधिका की तरफ नजर करके कहता देख बंटी हीरो की तरह तेरे बाल बना दिये है, अब बुआ को तंग मत करना । राधिका भतीजे का हाथ पकड़ कर ले जाती। राधिका का घर राजु की दुकान से कुछ दूरी पर ही था। मै तो वैसे ही ऊसकी दुकान पर चला आता था। अमिताभ का फैन था लेकिन उसकी दुकान मे हमेशा पूराने गाने ही बजते थे।  मै कहता कि राजु भैया कभी नये गाने भी बजाया करो तो वो कहता कि बुजुर्ग बिल कटवाते है तो बहुत तंग करते है। कोई कहता है नाक के बाल काटो कोई कहता है मेरी बगलो के बाल काटो,पूराने गाने चलते है तो वो गानो मे मगन हो जाते है और मै भी अपना काम आराम से कर लेता हूं। एक बार राधिका ने कह दिया राजु कुछ तो नये गाने बजाओ। तब से वो थोड़े नये गाने बजाने लगा है। राधिका आती है तो मुकद्धर का सिंकदर फिल्म के गाने बजाता। यह राधिका की पसंदीदा फिल्म थी । अब तो सुंदर भी साबुन घोलते यही गाना गुनगुनाता दिल तो है दिल, दिल का एतबार क्या कीजे।यह गाना गुनगुनाते हुए वो बाहर खड़ा होकर उस्तरा पत्थर पर रगड़ता सुबह के टाईम उसी समय राधिका वहां से निकलती। वो उस समय मोपेड पर कालेज जाती थी।  
    राजु की शादी नही हुई थी परन्तु शादी के लिए ओवर एज भी नही हुआ था।  उसने युवावस्था मे ही नहीं अपनी अलग दुकान जमा ली थी। शादी की बात पर कहता मै यहां शादी नही करूंगा। मै गुजरात मे शादी करूंगा। गुजरात मे चाचा के साथ रह़ूगा। वहां कमाई अच्छी है। चाचा सूरत मे साड़ियो के व्यापारी है। मै भी यह काम धंधा छोड़कर चाचा के साथ साड़ियो का बिजनेस करूंगा। शादी भी वहीं करूगा।   गुजरात जाने की बात क ई बार करता था। मेरे को कभी कहता कि पंडित मै सोचता हुं यही शादी कर लूं। यहां जमी जमाई दुकान है।फिर मेरे को राधिका के बारे मे पूछता था।  वो किस कालेज मे पढ़ती है,  उसके कितने भाई बहिन है। मै भोलेपन मे उसे बताता रहता।  राजु की दुकान मे राधिका के आने का एक फायदा हुआ कि राजु ने दुकान मे थोड़े नये गाने बजाना शुरू कर दिया था। मै भी अमिताभ के गानो का शौकिन था।उसकी दुकान मे मायापुरी पढ़ने जाता तो अमिताभ की फिल्मो के गाने का आनंद लेता। मै कभी गुनगुनाता इसको क्या कहते है आई लव यू। राजु सुनकर कहता पंडित अब पापा से कह देता हूं । चोखी छोरी देख लो लड़का जवान हो गया है।
    मै वापिस सवाल दाग देता - पहले तुम्हारी तो कर लो। मेरी बात सुनकर बाल काटते काटते रूक जाता और आईने मे अपने बालो पर हाथ फेरते हुए अपने होठो भींच कर धीमी आवाज मे कहता अपनी भी जल्दी हो जायेगी।
    रविवार के दिन राजु को नजर फेरने की फुरसत नही मिलती थी। उसके सैलून मे बैठने तक की जगह नही होती थी।  रविवार के दिन मै उसके सैलून मे नही जाता । बाकि दिनो मे दोपहर मे वो ग्राहकी न के बराबर होती थी। मै स्कूल से आने के बाद क ई बार दोपहर मे उसकी सैलून पर चला जाता। अप्रेल के शुरू के दिनो की बात है। एक दिन दोपहर यो ही उसकी सैलून गया था।   ऐसे ही बात करते  राजु ने पूछा आजकल राधिका दिखती नही है।  मैने तपपाक से कह दिया- अगले महीने उसकी शादी है। यह सुनते ही वो चुप हो गया। कुछ देर चुप बैठा रहा। फिर उठकर सैलून का सामान ठीक करने लगा। इस दिन के बाद से वो गुम शुम रहने लगा। मैने पूछा भी नही गुमशुम क्यो हो।  
    आज राधिका की शादी थी। राधिका हमारे मोहल्ले की थी। इसलिए हम लोगो को भी शादी मे जाना था। सुबह से ही उत्साह था कि शादी मे जाना है।  सुबह दस बजे ही नही थे कि मै राजु की दुकान पहुंज गया।  पहुंचने पर पता चला कि दुकान तो बंद है। ऊपर देखा तो राजु हेयर सैलून का बोर्ड भी नही था। दुकान मामाजी के घर के नीचे ही थी। ऊपर खिड़की मे खड़े मामाजी के लड़के ने मुझे देख लिया तो कहा - दुकान बंद हो गयी है। मैने ईशारा करके पूछा क्यो? तो उसने कहा - वो गुजरात चला गया है, अपने चाचा केपास। मै कुछ देर वही खड़ा रहा।  सामने सड़क पर महिलाओ का झुण्ड शादी के गीत गाते हुए राधिका के घर जा रहा था।

    Friday, January 10, 2020

      दादू की एक रोमांचक दास
     रस्किन बॉन्ड
    Sep 28, 2012, 11:34 PM IST

    मेरे दादू के जीवन से जुड़े अनेक रोमांचक किस्से हैं, जो हमें आज भी याद आते हैं। उन्होंने इंडियन रेलवे ज्वाइन करने से पहले कुछ समय ईस्ट अफ्रीकन रेलवे में भी काम किया था और उसी दौरान उनकी एक बार शुतुरमुर्ग से जबरदस्त मुठभेड़ हुई थी, जिसे वह ताउम्र नहीं भूले। दादू वहां एक छोटे-से कस्बे में रहते थे, जहां से उनका कार्यस्थल तकरीबन 12 मील दूर था। वह एक दुर्गम इलाका था और दादू घोड़े पर सवार होकर वहां तक आना-जाना करते थे। एक दिन दादू का घोड़ा बीमार पड़ गया। उनका कार्यस्थल पहुंचना बहुत जरूरी था, लिहाजा वह पैदल ही एक शॉर्टकट रास्ते से वहां के लिए निकल पड़े। यह रास्ता एक शुतुरमुर्ग के बाड़े से होकर जाता था, जहां से गुजरना खतरे से खाली नहीं था। ऐसा इसलिए क्योंकि उस वक्त शुतुरमुर्ग का प्रजननकाल चल रहा था और ऐसे में नर शुतुरमुर्ग बेहद उग्र हो जाते हैं। दादू इस बात से वाकिफ थे, लिहाजा उन्होंने अपने प्यारे डॉगी को भी साथ ले लिया था। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि बड़े से बड़ा शुतुरमुर्ग भी छोटे-से कुत्ते को देखते ही दुम दबाकर भाग लेता है। बहरहाल, बाड़े के नजदीक पहुंचने पर दादू ने इसके भीतर नजर दौड़ाई। वहां थोड़ी दूर पर ही कुछ शुतुरमुर्ग नजर आए। चूंकि उनका प्यारा डॉगी भी साथ था, लिहाजा वह बेखौफ बाड़े के भीतर चले गए। वह तकरीबन आधा मील ही चले होंगे कि उन्हें एक खरगोश दिखाई दिया। खरगोश को देखते ही डॉगी ने भौंकते हुए उसके पीछे दौड़ लगा दी। उन्होंने उसे वापस बुलाने की काफी कोशिश की, लेकिन सब फिजूल। डॉगी की आवाज से शुतुरमुर्गो में खलबली मच गई और वे इधर-उधर भागने लगे। अचानक दादू को तकरीबन 100 गज की दूरी पर एक विशाल नर शुतुरमुर्ग नजर आया, जो लगातार उन्हें घूर रहा था। अचानक उसने अपने पंख फैलाए, पूंछ ऊपर उठाई और दादू की ओर दौड़ लगा दी। यह देखकर दादू तुरंत पलटे और बाहर की ओर भागने लगे। लेकिन यह तो मानो खरगोश और कछुए की रेस थी। दादू के सोलह-सत्रह कदम उस विशाल प्राणी के दो-तीन कदमों के बराबर थे। बचने का सिर्फ एक ही रास्ता था- किसी झाड़ के पीछे छुप शुतुरमुर्ग को झांसा दिया जाए। लिहाजा दादू तुरंत अपनी दिशा बदलते हुए पास ही स्थित झाड़ियों के पीछे जाकर दुबक गए और अपनी उखड़ी सांसों को संभालने लगे। शुतुरमुर्ग से बचने के लिए बहुत सावधानी की जरूरत थी। उन्हें किसी भी सूरत में शुतुरमुर्ग की घातक किक के आगे नहीं आना था। शुतुरमुर्ग आगे की ओर कुंग-फू स्टाइल में इतनी जोर से किक मारता है कि व्यक्ति की हड्डी-पसली एक हो जाए और उसके पैने नाखून आपको लहूलुहान कर सकते हैं। बुरी तरह थके मेरे दादू मन ही मन ऊपरवाले से मदद की गुहार लगा रहे थे, तभी उस शुतुरमुर्ग ने उन्हें देख लिया। उन्हें वहां दुबका देख शुतुरमुर्ग दोगुनी शक्ति से भर गया और उनकी ओर छलांग लगा दी। दादू ने किसी तरह बाजू में हटते हुए अपना बचाव किया। तभी न जाने कहां से दादू में नई जान आ गई और उन्होंने उछलकर उसका एक पंख पकड़ लिया। अब डरने की बारी शुतुरमुर्ग की थी। वह बचने के लिए तेजी से गोल-गोल घूमने लगा। उसकी रफ्तार इतनी तेज थी कि दादू के पैर जमीन से उखड़ने लगे। लेकिन उन्होंने शुतुरमुर्ग का पंख नहीं छोड़ा। शुतुरमुर्ग गोल-गोल घूमते हुए तेजी से पंख फड़फड़ा रहा था। दादू की हालत बहुत खराब हो चुकी थी। लगातार खिंचाव पड़ने की वजह से उनकी बांह में तेज दर्द उठने लगा था और लगातार घूमने की वजह से उनका सिर भी चकराने लगा था। लेकिन वह जानते थे कि पकड़ ढीली करते ही उनकी शामत आ जाएगी। शुतुरमुर्ग लगातार चक्करघिन्नी बना हुआ था और उसे देखकर लगता था, मानो वह कभी थकेगा ही नहीं। तभी अचानक शुतुरमुर्ग एक पल के लिए रुका और उल्टी दिशा में घूमने लगा। इस अप्रत्याशित पलटी से न सिर्फ दादू की उसके पंखों से पकड़ छूट गई, वरन वह छिटककर जमीन पर लुढ़क गए। उनकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था। वह कुछ समझ पाते, इससे पहले ही शुतुरमुर्ग उनके सिर के पास आकर खड़ा हो गया। दादू को अपना अंत निकट नजर आने लगा। उन्होंने डर के मारे चेहरे को हथेलियों से ढंक लिया। लेकिन आश्चर्य, शुतुरमुर्ग ने हमला नहीं किया। उन्होंने चेहरे से हाथ हटाकर देखा तो पाया कि शुतुरमुर्ग अपना एक पैर उठाकर उन्हें जोरदार किक लगाने की पोजीशन में है। दादू की डर से घिग्घी बंध गई। वह उस वक्त कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। तभी अचानक एक आश्चर्यजनक घटना घटी। शुतुरमुर्ग ने दादू के ऊपर ताना हुआ अपना पैर हौले-से नीचे किया और तेजी से पलटकर वहां से भाग गया। दादू की हैरानी का ठिकाना नहीं था। तभी उन्होंने अपने प्यारे डॉगी के भौंकने की आवाज सुनाई दी और अगले ही पल वह उनके सामने हाजिर था। कहने की जरूरत नहीं, दादू ने उसे गोद में उठाकर खूब लाड़-दुलार किया। उस वक्त उनके लिए वह डॉगी किसी देवदूत से कम नहीं था। इसके बाद दादू ने शुतुरमुर्ग के बाड़े को पार करने तक एक पल के लिए भी डॉगी को खुद से अलग नहीं किया।रस्किन बॉन्ड पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल

    Tuesday, January 7, 2020

     मेरे शहर की औरते


    मेरे शहर की औरते
    अपने घर की दहलीज
    पर खड़े होकर
    देखती है
    स्कूल जाती शिक्षिकाओ को
    जो जाती हुई बाते करती है
    अपनी तनख्हो की।
    अपने गिरे हुए पल्लू को
    उठाकर अपना सिर ढकते हुए
    देखती है
    अंग्रेजी मे बाते करते हुए
    पार्लर जाती औरतो को।
    देखती है
    अंग्रेजी मे अपने बच्चो को
    डांटते हुए बाजार जाती औरतो को।
    देखती है
    कोई फिल्मी गीत गुनगुनाते
    हुए जाती औरतो को।
    देखती है
    हाथ जोड़कर
    वोट मांगती औरतो को।
    घर की ओर आते
    ससुर को देख
    अपना पल्लु  से पर्दा कर
    दहलीज से
    भीतर लौटती  है
    मेरे शहर की औरते।

       

    Friday, January 3, 2020

    जब अटलजी प्रधानमंत्री बने

                   जब अटल जी प्रधानमंत्री बने




    किस्सा बहुत पूराना है। उस समय का जब मेरे लिऐ बाते कम सपने ज्यादा हुवा करते थे।यह मेरे मुहल्ले का किस्सा है। हमारे मुहल्ले मे रहते थे डागाजी। एक सफेद बनियान और धोती उनका पहनावा था। सर्दी और गर्मी बारह महीने वो बनियान और धोती पहनते थे। सर्दी मे काले रंग का शाल ओढ़ लेते थे। मेरे पड़ोसी थे। हमारे घर के नजदीक एक परचुन की दुकान थी। उनका ज्यादातर समय वहीं बितता था। वो बीजेपी के बड़े समर्थक थे। दुकान पर बैठकर बीजेपी की ही बाते करते। दुकानदार भी बुजुर्गवार ही थे। हम लोग उन्हे जीसा कहकर बुलाते थे। जीसा और डागाजी बीजेपी के भविष्य को लेकर बाते करते। जीसा कहते डागाजी देखना एक दिन बीजेपी का प्रधानमंत्री जरूर बनेगा। इस बात पर डागा जी के झुरियां पड़े चेहरे पर चमक आ जाती। उस समय बीजेपी की लोकसभा मे दो ही सीटे थी।  पर डागा जी को उम्मीद थी। मै उन दिनो छोटा ही था। मै सुबह घर निकलकर बाहर दुकान पर आता तो डागा जी मेरे पैर छुते। मै पीछे हटता तो कहते आप ब्राहम्ण देवता हो। उनके कोई औलाद नही थी। अपनी पत्नि के साथ किराये पर रहते थे। मंदिर जाना और भागवत् कथा सुनने जाना, दिनभर उनका यही काम होता था। वे रामसुखदास जी महाराज के बड़े भक्त थे। महाराज जी जब भी बीकानेर आते रोज उनको सुनने जाते। उनकी आय का क्या जरिया था। इस बारे मे मुझे कुछ पता नही था। मेरा बचपन था तो मुझे इन बातो से कुछ लेना देना नही था। घर के नीचे एक बंद कमरा था जिसमे बड़ा सा काटा लगा था। वहां पांच, दस और बीस किलो के बाट पड़े रहते थे। वो यह कभी कभार ही खोलते थे।  हमारा मुहल्ला बड़ा था। आगे खुला मैदान की तरह चौक था। शाम को चोक मे बच्चो का हुजुम इकट्ठा होता था।  डागाजी को यही पसंद नही था। बच्चो को तो देखना ही पसंद नही करते थे। बच्चो ने उसे क्रिकेट का मैदान बना लिया था। शाम को रोज वहां क्रिकेट होती।  बच्चे जोर से शाट रगाते तो बाल लोगो के घरो मे चली जाती। प्राय
    सभी लोग बच्चो को बाल वापिस कर देते।  डागाजी के घर बाल जाती तो वे देने से मना कर देते। बच्चे कुछ देर तो गुहार लगाते फिर नाराज होकर चले जाते। अगले दिन डागाजी वो बाल मेरे को दे देते। मै वह बाल उन बच्चो को दे देता। कुछ दिन यह सिलसिला चला।  फिर एक बार डागाजी को पता चल गया कि मै उन बच्चो को बाल दे देता हुं तो मेरे को बाल देना बंद कर दिया। अब उनके घर बाल गिरती तो वो उसे दो टुकड़ो मे काटकर फेंक देते।  बच्चे कुछ देर शोर करते फिर चले जाते। डागाजी की और बच्चो की लड़ाई ऐसे ही चलती रहती। कोई दूसरा इनके बीच मे नही आता। कोई किसी से डागा जी को समझाने की गुहार लगाता तो वो इनकार कर देते। मुझे बच्चो के लिए क्रूर लगते थे लेकिन मेरे प्रति  सह्दय थे।मैने उनसे ज्यादा बात नही करता था। मै समझता था कि उनके औलाद नही होने से वे दूसरे बच्चो के लिए इतने कठोर है लेकिन जीसा ने मुझे बताया कि वो बरसो से मुहल्ले की स्कूल मे एक हजार रूपये हर महीने देते है ताकि कोई बच्चा फीस नही भर पाये तो इन पैसो से उसकी पूर्ति कर ली जावे तब से उनके प्रति मेरी राय बदल गयी। हमने अपना वो घर छोड़ दिया और शहर के किसी दूसरे कोने मे रहने लग गये। मै डागाजी को भूल गया था। मै कालेज मे पढ़ने लगा था। उसी समय अटल बिहारी देश के प्रधानमंत्री बने। टीवी पर अटल बिहारी का शपथ ग्रहण समारोह चल रहा था मुझे डागाजी की याद आ गयी। मै उसी समय उन्हे बधाई देने निकल पड़ा। मेरा पूराना मुहल्ला बीजेपी विचारधारा का समर्थक था। मुहल्ले मे भीड़ थी। नारे लग रहे थे। मै सीधा जीसा के पास गया। जीसा और डागाजी की बहुत बनती थी। दोनो सगे भाई की तरह थे।  जीसा भी नारे लगाते और नाचते युवाओ को देख रहे थे। मैने जीसा को डागा जी के  बारे मे पूछा। वो कुछ नही बोले। अपनी गर्दन घुमाकर डागाजी के घर की ओर देखा और मेरी तरफ चेहरा किया। उनकी आंखो मे पानी की पतली लहर झिलमिलाने लगी।