Monday, October 3, 2022

मनीष कुमार जोशी की कहानी - भिक्षु

 


मै अपने शहर के जिस हिस्‍से में रहता हूं वहां आश्रम बहुत है। हर एक किलोमीटर पर एक आश्रम है। हर किलोमीटर ही नहीं बल्कि हर सौ मीटर की दूरी पर एक आश्रम आपको मिलेगा। यह हिन्‍दू सनातन संस्‍क़ति के आश्रम है। इस क्षेत्र में रहने वाले बाशिन्‍दे अपने आपको आश्रम का हिस्‍सा ही मानते है। यहां के लोग का रहन सहन साधारण है और खान पान भी साधारण है। यहां तक की यहां कोई प्‍याज भी नहीं खाता है। हम लोग सुबह उठते है तो हमारे कानो में वेदमंत्र और प्रार्थनाओ की आवाजे पडती है। शाम को मन्दिरो की घंटिया सुनाई देती है। हमारे यहां इन आश्रमो को बगेचियां कहते है। इन बगेचियों में संत और साधु रहते है। महिला साधुओ और संतो की बगेचियां अलग से है। दोंपहर में इन बगेचियों में प्रवचन होते है जिसमें हर घर से काई न कोई जाता है। प्रवचनो की आवाजे हमारे घरो तक भी आती रहती है। जब कोई बडा संत किसी बगेची मे आता है तो आस पास के लोग उसमें सहयोग करते है। युवा बढ चढ कर इसमें हिस्‍सा लेते है। आने वाले संत की वो खूब सेवा करते है। सुबह सुबह जब आप निकलते हो तो आप को कहीं न कहीं कोई साधु और संत मिल ही जाता है।  यहां किसी वाशिदे को आज तक कभी किसी बगेची के कार्यक्रम से कोई परेशानी नहीं हुई है और वाशिंदो के किसी कार्यक्रम से किसी बगेची को कोई परेंशानी नहीं हुई है। 

मै इस क्षेत्र में रहता हूं तो मै भी बगेची की संस्‍कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। मेरे घर से मेरी मां इन बगेचियो में जाती रहती है। जब घर से मां बगेची जाती है तो हमें भी कभी जाने का अवसर मिल ही जाता है। मैं जब छोटा था तो अपनी मां के साथ बगेची जाया करता था। मां कभी मेरे साथ बगेची में भेंट भी भेजती थी और मै दौडकर उस बगेची में दे आता था। हमारे लिए कोई बगेची घर से ज्यादा दूर नहीं थी। कभी मै अपने दोस्‍त के साथ उस बगेची में भेंट देने के लिए ले जाता था। किसी उत्‍सव या त्‍योंहार के अवसर पर मां हम सब घरवालो को बगेची में महंतजी से आर्शिवाद लेने भेजती । हम सब की यह आदत भी हो चुकी थी कि उत्‍सव या त्‍योंहार के अवसर पर हम सब एक साथ बगेची जाते । मै जब पन्‍द्रह – सत्रह वर्ष का रहा होउंगा। मै मां के साथ बेगची जाता था। बगेची मे मै महंत जी से आर्शीवाद लेता और मंदिर में दर्शन करता। यहां हर बगेची में मंदिर बना है। वहां साधुओ और संतो की टोलियो को देखता । मैं उन साधु और संतो की टोलियो को देखकर प्रभावित होता। मुझे हमेंशा से ही साधु और संतो के दर्शन करना अच्‍छा लगता है। उस समय में उनके कार्यकलापो को देखता कि वे कहां जाते और क्‍या करते है। एक उत्‍सुकता मेरे मन में हमेंशा बनी रहती। मैं उनके द्वारा उच्‍चारित किये जाने वाले वेद मंत्रो को ध्‍यान लगाकर सुनता। मै अपनी मां से इस बारे में बहुत सारे प्रश्‍न पूछता रहता ।  साधु और संत टीवी नहीं देखते क्‍या । साधु और संत दूसरे कपडे क्‍यो नहीं पहनते । ये भी त्‍योंहार मनाते है क्‍या। त्‍योहरो पर ये भी खरीदारी करते है क्‍या । बहुत सारे उटपटांग प्रश्‍न मै अपनी मां से पूछता। मेरी मां मेंरे हर प्रश्‍न का जवाब देकर मुझे संतुष्‍ट कर देती। उन दिनो में बगेची में गया तो मुझे एक लडका हमेंशा प्रभावित करता। वो मेरी उम्रं का ही रहा होगा। कोई चौदह- पन्‍द्रह वर्ष का। मैं बगेची जाता तो वो मुझे साधुओ के साथ चलता हुआ दिखता। मुंडन करवाया हुआ और भगवे वस्‍त्र पहने हुए। मै उसकी तरफ देखता तो वो मुस्‍कुरा देता। उसे आये हुए कुछ दिन ही हुए होंगे। उसके होठो के बीच निकले हुए सफेद दांत हमेंशा मेरे में उर्जा भर देते। साधु और संत वेदमंत्रो का उच्‍चारण करते तो वो भी उसी लय में वेदमंत्रो का उच्‍चारण करता। महंत जी उसे भिक्षु कहकर बुलाते । मैने कभी उसके माथे पर चिंता, भय और परेशानी की कोई रेखा नहीं देखी। मां के साथ कभी दोपहर में प्रवचन में जाता तो भिक्षु मंहत जी के पीछे बैठा होता। वैसे ही मुस्‍कुराते हुए। शाम को कभी मै बगेची जाता तो वो मंदिर में आरती करते हुए मिलता। वो जोर जोर से स्‍तुति के साथ आरती गाता। वहां आये हुए लोग आरती के बाद उसके चरण छुकर आर्शीवाद लेते । वो मुस्‍कुराते हुए आर्शीवाद देता।

मै उस समय किशोरावस्‍था में था। मेरे मन में कई प्रश्‍न उठते थे। भिक्षु को देखने के बाद तो मेरे न में प्रश्‍नो का झरना बह निकला। मै सोचता रहता कि इतना छोटा बच्‍चा साधु कैसे बन गया। क्‍या घर से भागकर साधु बना है। उसका मन साधु बनने में कैसे लग गया। मै अपनी मां से ये सारे सवाल पूछता । मेरी मां मेरे सवालो का कुछ न कुछ उत्‍तर दे देती परन्‍तु भिक्ष्‍ुा  पर दिये गये जवाबो से मै संतुष्‍ट नहीं था। मेरे मन में उलझन बनी रहती। एक शाम को मै बगेची गया। बगेची मै आरती हो रही थी। श्रद्धालुओ की भीड थी। सभी आरती में भाव विभोर थे। आरती समाप्‍त होने के बाद सभी जयकारे लगा रहे थे। भिक्षु आरती हर एक नजदीक ले जा रहा था। सभी आरती के उपर हाथ फेरकर अपनी आंखो के लगा रहे थे। भिक्षु मुस्‍कुराते हुए सभी को आरती के दर्शन कर रहा था। मैं भीड में सबसे पीछे खडा था। भिक्षु धीरे धीरे मेरी ओर आ रहा था। मेरी ओर भिक्षु आया। मै उससे कुछ पूछना चाह रहा था। मेरी हिम्‍म्‍त नहीं हो रही थी। इस कारण मेरे चेहरे पर शंका के भाव थे। भिक्षु मेरे नजदीक आया। वो ही मुस्‍कुराता हुआ। उसके दो सुदंर होठो में से सफेद दांत झांक रहे थे। ऐसे लग रहा था कि सुबह की लालिमा मे से भोर का सूरज निकल रहा हो। मैं कुछ बोल नही पाया। वह मुस्‍कुराते हुए बोल पडा- कैसे हो ब्रदर। कहते हुए आरती मेरे आगे कर दी।  मै सकपका गया। आरती के बाद घर लौटा तो मेरे जहन मे सवालो की जगह उस भिक्षु का मुस्‍रकुराता हुआ चेहरा था।

रात को बिस्‍तर पर सोने गया तो एक बार फिर सवाल मेरे सामने खडा हो गया। इतना छोटा बालक भिक्षु कैसे बन गया। उन दिनो दीवाली आने वाली थी। मै सोच रहा था कि मुझे दीवाली का इतना शौक है। मै दीवाली पर पूरे शहर की रोशनी देखने जाता हूं। इतने पटाखे फोडता हु और तरह तरह की मिठाईयां खाता हूं। मै इनके बिना नहीं रह सकता हूं। वो कैसे रहता होगा। उसके कानो में पटाखो की आवाज पडती होगी तो उस‍के मन में भी आता होगा। मै दीपावली को नये नये कपडे पहनता हु। तो भिक्षु के मन में भी दूसरे कपडे पहनने की आती होगी। यह सोच कर मै भिक्ष्‍ुा के लिए दुखी होता । मै करवटे बदलता रहा और भिक्षु के बारे में सोचता रहा।



अगले दिन मै खेलने गया। वहां भी सोचता रहा कि मुझे खेलने मे बहुत मजा आता है तो उस भिक्षुं के मन में भी तो आती होगी। उसके मन में भी तो खेलने की बात आयी होगी। पर वो खेल नही सकता। आश्रम के नियम ही है ऐसे। वो कैसे रहता होगा। उसकी जिंदगी तो रसहीन हो गयी होगी। एक बार फिर भिक्षुं को लेकर मै दुखी हुआ। बडो तक तो ठीक है पर एक बच्‍चा कैसे भिक्षु हो सकता है। तभी उस बगेची से साधुओ की एक टोली भिक्षा मांगने निकली। वैसे तो बगेचियो में बहुत से सेठ दान करते है और उन्‍हे भिक्षा मांगने की जरूरत नहीं होती है परन्‍तु भिक्षा मांगना उनकी एक परंपरा है। इसलिए वो महीने में किसी दिन भिक्षा मांगने निकलते है। कुछ एक घरो में जाकर परंपंरा का निर्वाह करते है। उन साधुओ की टोली में भिक्षु मुस्‍कुराता हुआ चल रहा था। मै उसे देखकर दुखी हो रहा था। उसके चेहरे पर कोई शिकन और चिंता नहीं थी बल्कि वो मुझ से दुगुना खुश्‍ दिखाई दे रहा था। मै फिर भी सोच रहा था कि वो इतना खुश क्‍यों है। क्‍या वो पहले अभावो में जी रहा था। हो सकता है वो पहले कहीं अनाथाश्रम में रहा हो। वहां से भागकर आया और यहां उसे अच्‍छा लगने लगा हो। फिर भी ऐसा नहीं हो सकता है कि वो इन बंधनो में खुश रहे ।

मै दिन भर उलझन में रहा। मेरे चेहरे पर उलझन साफ देखी जा सकती थी। मेरे चेहरे पर तनाव व उलझन उतनी ही थी जितनी भिक्षु के चेहरे पर खुशी और आनंद। मेरे पिताजी ने मुझे देख लिया और मेरे चेहरे पर लिखे तनाव और उलझन को पढ लिया। पिता जी ने पूछा- क्या बात है। तो मैने सारी बात अपने पिताजी को बता दी। पिताजी मेरी बात सुनकर मुस्‍कुराये और कहा कि कल मै तुम्‍हारे साथ बगेची चलूंगा। कल हम भिक्षु से ही पूछ लेते है। मै क्‍या तुम खुद ही पूछ लेना।

अगले दिन मै अपने पिताजी के साथ बगेची गया। महंत जी साधना मे व्‍यस्‍त थे। दूसरे संत अध्‍ययन कर रहे थे। भिक्षु भी अध्‍ययन कर रहा था। पिताजी ने वहां बात की  तो उन्‍होने भिक्षु से बातचीत करने की अनुमति दे दी। मै भिक्षु के सामने चुपचाप बैठा था। खामोशी से उसे देखता रहा । भिक्षु भगवे वस्‍त्र पहने हुए चेहरे पर मुस्‍कान के साथ बैठा था। भिक्षु पहले बोल पडा – क्‍या बात है ब्रादर।

मैने पूछा – एक बात पूछूं ।

भिक्षु बोला- एक नहीं दस पूछो।

मैने अपना माथा खुजाया और बोला- तुम्‍हारी मुस्‍कान असली है।

भिक्षु मेरे प्रश्‍न पर फिर मुस्‍कुराया और बोला- सौ प्रतिशत खरी। तुम्‍हे क्‍या लगा कि मै झूठा मुस्‍कुरा रहा हूं।

नहीं। मै तो ऐसे ही पूछ रहा था। तुम्‍हे कभी दूसरे प्रकार के कपडे पहनने की ईच्‍छा नहीं होती।

वो फिर मुस्‍कुराय और बोला- ब्रादर। रंग बिरंगे कपडे क्‍यों पहनते है। खुशी के लिए। मुझे वैसे ही इतनी सार खुशी मिली हुई । रंग बिरंगे कपडे पहनने लगगूगां तो ये खुशी मै खो दूंगा।

भिक्षु के जवाब से मै पूरा संतुंष्‍ट नही् हुआ। फिर मैने अगला सवाल किया – तुम्‍हे कभी खेलने का मन नहीं होता।

इस बार फिर भिक्षु मुस्‍कुराया नहीं बल्कि हंसा । उसने कहा- यहां खेलने की पाबंदी थोडे ही है। मै  जब चाहे खेल सकता हूं। मै तुम्‍हारे साथ भी खेल सकता हूं। मुझे मना थोडे ही है परन्‍तु मै ज्ञान के साथ खेलता हूं। मुझे उसमे आनंद आता है। मै महंत जी के प्रवचनो मे खो जाता हूं। मुझे शास्‍त्रो में नयी नयी चीजे मिलती है। मेरी जिज्ञासा शांत होने के बाद बढती जाती है।

इस जवाब के बाद तो मेरे को लगा कि मेरे पास सवाल है ही नहीं । फिर भी मैं पूर्ण रूप से संतुष्‍ट नहीं था। मैने फिर पूछ लिया – तुम्‍हे इतनी खुशी मिलती कैसे है।

इस बार भिक्षु मंद मंद मुस्‍काया और बोला – यह तो यहां आने पर पता चलता है।यहां पर महंत जी शास्‍त्रो का ज्ञान देते है और फिर ध्‍यान करवाते है। उस परमात्‍मा को ध्‍यान करता हूं तो मुझे खुशी मिलती है। मै परमात्‍मा में खोया रहता हूं। मेरी खुशी का कारण भी यही है। इसके लिए अभ्‍यास करना पडता है। महंत जी के सानिध्‍य में मै इसका कठोर अभ्‍यास कर रहा हू। इसी अभ्‍यास से मुझे खुशी मिलती है ब्रादर।

इस जवाब का मेरे पास कोई जवाब नहीं थी। इस जवाब ने मेरे सारे सवालो के जवाब दे दिये। अब मेरे पास कोई सवाल नहीं था। मै भिक्षु को देखता रहा। मैने भिक्षु का प्रणाम किया। आज मेरे मन में भिक्षु के प्रति आदर भाव बढ गया। मै और पिता जी मंदिर के दर्शन कर वहां से निकल लिये। हमारे कानो में वेदमंत्रो की ध्‍वनियां पड रही थी।