Wednesday, June 24, 2020

हम सब के भीतर मौजूद है आनंद


स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अपने आपको अपने भीतर खोजो। वेदांत मे कहा गया है अहं ब्रम्हास्मि और सोहं्म। मैं ब्रह्म्म हूं और ये वही है। आपने अक्सर महात्माओ को प्रवचन में यह उपदेश देते सुना होगा कि भगवान को अपने भीतर खोजो । कहने का तात्पर्य यह है कि अपने मूल को खेजो जहां हमारी सारी शक्तियां एकत्रित है। इसीलिए हम शक्ति की उपासना करते है। वह हमारा आरंभ बिंदु है। इसे वेदांत में एक बाल की नोक के सौवें हिस्से के बराबर बताया गया है। यही हमारा केन्द्र बिन्दु है जहां से हमारी उर्जा उत्सर्जित होती है। यही हमारा मूल है और इसकी मूल पृवृत्ति आनंद है।

वेदो में इसे परमानंद बताया गया है। वह सदानंद परमात्मा है। ऐसा कहा गया है। महात्माओ द्वारा अपने प्रवचन में यह कहते सुना होगा जिसने इसे पा लिया उसे और किसी आनंद की जरूरत नहीं है क्योंकि यह स्वयं परमानंद है। इस परमानंद को प्राप्त करने के लिए इसके मूल को खोजना होगा। ये हमारी क्ति का केन्द्र है। इसका मूल स्वभाव आनंद है। इससे निकलने वाली उर्जा आनंदमय होती है। इस उर्जा को हम दूसरी प्रकार की उर्जा में प्रवर्तित करते है लेकिन यह  अपनी मूल प्रवृत्ति बदलता नहीं है। कठोपनिद में कहा गया है एकं रूपं बहुधा यः करोति अर्थात वह वस्तुओे के एक ही रूप् को नाना प्रकार से रूपायित करता है। यह सदा आनंदित रहता है और यही हमारा भी मूल स्वभाव है।

इसको हम अपने दैनिक जीवन में स्पटतः देख सकते है कि हम अपनी मूल प्रवृत्ति से भटकते नहीं है। हम वापिस लौटकर अपनी मूल प्रवृत्ति पाने का प्रयास करते है। यदि प्रयास नहीं भी करते है तो भी हम स्वतः ही अपने मूल स्वभाव में लौट जाते है। हम अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ते है। हमारे सारे प्रयास आनंद को प्राप्त करने के लिए होते है। यदि हम पैसा कमाते है तोै। यदि हम पैसा कमाते है तो उसका अंतोगत्वा उद्धेय आनंद को प्राप्त करना है। हमारे सारे कर्मो का परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन हर एक मनुय का उद्धेय आनंद को प्राप्त करने का होता है। इसमें यह जरूर हो सकता है कि आम मनुय का उद्धेय इन्द्रियो को तृप्त करने का सुख प्राप्त करने का हो सकता है। लेकिन वे आनंदित होना चाहते है । संसार में सारे व्यापार आनंद प्राप्त करने के लिए है क्योंकि मनुय आनंदति होना चाहता है क्योंकि यह उसकी मूल प्रवृत्ति है।

इसको इस प्रकार भी समझ सकते है कि मनुय हमें अपनी मूल प्रवृत्ति की और लौटता है और सारे कर्म वह आनंदित होने के लिए ही करता है। फिर दुःख कहां से आता है। दुःख तो हमारी प्रवृत्ति नहीं है। इसीलिए दुःख के बाद मानव पुनः आनंद की ओर लौटता है। हमारे जीवन में अनेक घटनाऐं घटती है जो हमारे मनोकूल नहीं होती है। कई घटनाऐं हमारे जीवन में भूचाल ला देती है। हमारा जीवन दुःख के सागर में डूबा हुआ प्रतीत होता है। हमें चारो ओर निराा और कट ही कट दिखाई देता है। लेकिन इस कटमय समय के गुजर जाने के बाद हम फिर से हंसने बोलने लगते है। हम फिर से आनंदित हो जाते है । हम फिर से अपने मूल स्वभाव में लौट जाते है। ाक, भय और दुःख ये सब हमारे बाहर से आते है। यह हमारे भीतर नहीं है। बाहर की प्रवृत्तियो से हम ाक, भय और दुःख को महसूस करते है। दुःख हमे ाक्तिाली लगता हैै। ऐसा लगता है कि हमारे लिए संसार में कट के अलावा कुछ नहीं है लेकिन देखते है कि ऐसा कहने और सोचने वाले मनुय को कुछ समय बाद खु होता देख सकते है।


हम प्रतिदिन भगवान का स्मरण करते है। भगवान परमानंद है और हम उस परमानंद को पाना चाहते है। हम चाहते है हमारे जीवन में जो भी चीजे हो वो आनंद देने वाली हो। जीवन में सुख प्राप्त करने का आाय ही आनंदित होना है। सुख क्षणिक नहीं है बल्कि दुख क्षणिक है। हमारा जीवन का अधिकां हिस्सा आनंदमय होता है और दुख का हिस्सा बहुत कम होता है। इसलिए हमें इस चीज को समझना चाहिए कि हमारा मूल स्वभाव आनंद है। इसीलिए हमे अपने आपको अपने भीतर खोजना चाहिए। यदि हमने अपने आपको खोज लिया तो हम सदानंद हो जायेंगे। फिर हमे आनंदित होने के लिए अपने बाहर की क्रियाओ पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा।यदि हम पैसा कमाते है तो उसका अंतोगत्वा उद्धेय आनंद को प्राप्त करना है। हमारे सारे कर्मो का परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन हर एक मनुय का उद्धेय आनंद को प्राप्त करने का होता है। इसमें यह जरूर हो सकता है कि आम मनुय का उद्धेय इन्द्रियो को तृप्त करने का सुख प्राप्त करने का हो सकता है। लेकिन वे आनंदित होना चाहते है । संसार में सारे व्यापार आनंद प्राप्त करने के लिए है क्योंकि मनुष्य आनंदति होना चाहता है क्योंकि यह उसकी मूल प्रवृत्ति है।

इसको इस प्रकार भी समझ सकते है कि मनुष्य हमें अपनी मूल प्रवृत्ति की और लौटता है और सारे कर्म वह आनंदित होने के लिए ही करता है। फिर दुःख कहां से आता है। दुःख तो हमारी प्रवृत्ति नहीं है। इसीलिए दुःख के बाद मानव पुनः आनंद की ओर लौटता है। हमारे जीवन में अनेक घटनाऐं घटती है जो हमारे मनोकूल नहीं होती है। कई घटनाऐं हमारे जीवन में भूचाल ला देती है। हमारा जीवन दुःख के सागर में डूबा हुआ प्रतीत होता है। हमें चारो ओर निराा और कट ही कट दिखाई देता है। लेकिन इस कटमय समय के गुजर जाने के बाद हम फिर से हंसने बोलने लगते है। हम फिर से आनंदित हो जाते है । हम फिर से अपने मूल स्वभाव में लौट जाते है। शोक, भय और दुःख ये सब हमारे बाहर से आते है। यह हमारे भीतर नहीं है। बाहर की प्रवृत्तियो से हम शोक, भय और दुःख को महसूस करते है। दुःख हमे शक्तिशाली लगता हैै। ऐसा लगता है कि हमारे लिए संसार में दुख के अलावा कुछ नहीं है लेकिन देखते है कि ऐसा कहने और सोचने वाले मनुष्य को कुछ समय बाद दुखी होता देख सकते है।

हम प्रतिदिन भगवान का स्मरण करते है। भगवान परमानंद है और हम उस परमानंद को पाना चाहते है। हम चाहते है हमारे जीवन में जो भी चीजे हो वो आनंद देने वाली हो। जीवन में सुख प्राप्त करने का आाय ही आनंदित होना है। सुख क्षणिक नहीं है बल्कि दुख क्षणिक है। हमारा जीवन का अधिकां हिस्सा आनंदमय होता है और दुख का हिस्सा बहुत कम होता है। इसलिए हमें इस चीज को समझना चाहिए कि हमारा मूल स्वभाव आनंद है। इसीलिए हमे अपने आपको अपने भीतर खोजना चाहिए। यदि हमने अपने आपको खोज लिया तो हम सदानंद हो जायेंगे। फिर हमे आनंदित होने के लिए अपने बाहर की क्रियाओ पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा।


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