Monday, December 30, 2019

लिखना सबसे बड़ा सुख
रस्किन बॉन्ड

Jul 03, 2012, 01:15 AM IST

मैं अपने आपको खुशकिस्मत समझता हूं, क्योंकि पिछली लगभग आधी सदी से मैं वह काम करके अपनी आजीविका कमा रहा हूं, जिससे मुझे प्यार है। जी हां, यह काम है लेखन। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि शायद मैंने कुछ ज्यादा ही लिख दिया है। हां, ऐसा हो जाता है कि आपका लेखन एक आदत में ढल जाए और एक सीमा के बाद आप खुद को दोहराने लगें। यह भी संभव है कि कहने का तरीका बदल जाए, लेकिन विचार, स्मृतियां, चरित्र, परिवेश, घटनाएं लगभग वही या वैसी ही रहें। यूं भी कलाकारों और संगीतकारों की तुलना में लेखकों पर खुद को दोहराए जाने का आरोप कुछ ज्यादा ही लगाया जाता है। टर्नर से कभी किसी ने नहीं कहा कि उन्होंने सूर्यास्तों के इतने सारे चित्र क्यों बनाए, या गोगां को किसी ने नहीं टोका कि वे सुंदर ताहिशियन महिलाओं के चित्र ही क्यों बनाते रहे, या हुसेन से ही किसी ने नहीं कहा कि इतने सारे घोड़ों के चित्र बनाने की भला क्या जरूरत आन पड़ी थी। संगीत की दुनिया में भी अगर देखें तो पाएंगे कि पुचिनी का एक ऑपेरा दूसरे से बहुत भिन्न नहीं है। शोपां के नॉक्चर्न एक जैसी थीम पर रचे गए हैं। आधुनिक सुगम संगीत में भी एक ही किस्म की मेलोडी जरा से वेरिएशन के साथ बार-बार दोहराई जाती है। लेकिन लेखकों को इतनी रियायत नहीं मिलती। शायद वे जिस विधा में काम कर रहे होते हैं, यह उसकी भी एक सीमा है। लेखकों पर अपने चरित्रों को दोहराने का आरोप इसलिए लगता है, क्योंकि वे व्यक्तियों के बारे में लिख रहे होते हैं, रंगों या ध्वनियों पर काम नहीं कर रहे होते हैं। हेमिंग्वे की दुनिया जेन ऑस्टन की दुनिया से बहुत भिन्न है, लेकिन इसके बावजूद लेखन के प्रति उनके रवैये में यह बात समान मिलेगी कि उनके द्वारा रचे गए चरित्र उनके ही मनोभावों का विस्तार थे। फर्क इतना ही है कि जेन ऑस्टन ने अपना पूरा जीवन एक छोटी-सी जगह पर बिता दिया, जबकि हेमिंग्वे किसी घुमंतू यायावर की तरह पूरी दुनिया का चक्कर काटते रहे। किसी भी लेखक के लंबे कॅरिअर में यह लगभग तय है कि कभी न कभी वह खुद को दोहराएगा। लेखक के दिमाग में नए विचार आने के बावजूद पुरानी विषयवस्तुएं भी बनी रहती हैं। लेकिन सबसे जरूरी यही है कि लिखते रहा जाए। दुनिया को सतर्क नजरों से देखा व सुना जाए और शब्दों तथा उनके विन्यास की सुंदरता को निहारा जाए। और जैसाकि लेखकों के साथ ही कलाकारों और संगीतकारों पर लागू होता है कि हम अपने कौशल पर जितना काम करेंगे, उतनी ही हमारी प्रतिभा निखरती चली जाएगी। मेरे लिए लिखना दुनिया का सबसे सरल काम और सबसे बड़ा सुख है। किसी मनोभाव या विचार को शब्दों में व्यक्त कर पाना एक ऐसा हुनर है, जिससे मैं बहुत प्यार करता हूं। मैं अपने दिन की योजना कुछ इस तरह बनाता हूं कि उसमें कुछ न कुछ लिखने की गुंजाइश बनी रहे, फिर चाहे वह कोई छोटी-सी कविता, कोई एक पैराग्राफ, कहानी का एक हिस्सा, निबंध या कोई बड़ा लेख ही क्यों न हो। इसकी वजह यह नहीं है कि लेखन मेरा पेशा है, बल्कि यह है कि मुझे इससे बहुत खुशी मिलती है। मेरे आसपास की दुनिया (चाहे पहाड़ हो या मेरी खिड़की से नजर आने वाली चहल-पहल भरी सड़क) लोगों, दृश्यों, विचारों से भरी पड़ी है और मैं उस गुजरते हुए लम्हे को हमेशा के लिए थाम लेने के लिए उसे लिख लेता हूं। मेरे लेखन में मेरी जिंदगी की मुस्कराहटें और आंसू समाए हुए हैं। यदि मुझे रोज लिखने की आजादी नहीं होती तो जीवन मेरे लिए असहनीय हो जाता। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि मेरे द्वारा लिखी गई हर चीज सहेजने लायक होती है। मेरी पांडुलिपियों के अनेक पृष्ठ छपने से पहले ही मेरे कूड़ेदान में समा चुके होते हैं। मैं हमेशा अपनी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, जाहिर है मैं हमेशा दूसरों की उम्मीदों पर भी खरा नहीं उतर सकता। लेखन की मेरी थ्योरी यह है कि हमारे विचार एकदम स्पष्ट होने चाहिए और शब्द साफ पानी की धारा की तरह बहने चाहिए। और यदि शब्द किसी पहाड़ी झरने की तरह बहते हों तो कहने ही क्या। निश्चित ही हमें अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है, लेकिन इसी तरह हम उनसे जूझना सीखते हैं। यदि लेखन के दौरान हमारी गति किसी गंदली नदी की तरह सुस्त पड़ जाए, तो यही बेहतर होगा कि हम वहीं रुक जाएं। लेखक को बार-बार अपने स्रोत, अपने उद्गम की ओर लौटकर जाना पड़ता है, ताकि वह अपने स्पष्ट विचारों को फिर से पा सके। मैं एक दिन में एक या दो घंटे से अधिक नहीं लिखता। यदि मैं लेखन को इससे ज्यादा समय दूं तो मेरे शब्द बोझिल होने लगते हैं और मैं यह कतई नहीं चाहता। मुझे अपने लिए एक साफ नदी चाहिए। लेकिन लेखन के लिए स्पष्ट विचार और शब्द संपदा के साथ ही अच्छे मूड की भी जरूरत होती है। मुझे यकीन है कि जब स्टर्न ने ‘शैंडी’ लिखा होगा, तब वे खुशी से उछल रहे होंगे। ‘वुदरिंग हाइट्स’ पढ़कर पता चलता है कि एमिली ब्रोंते जिंदगी को कितनी शिद्दत से प्यार करती थीं। डिकेंस हर शब्द को इस तरह लिखते थे, जैसे यह उनका आखिरी शब्द हो। कॉनराड के लेखन में समुद्र का-सा विस्तार और बेचैनी है। महान लेखक वही होते हैं, जिन्हें अपने अहसासों को शब्दों में पिरोने का हुनर आता है। एक बार एक स्कूली लड़के ने मुझसे पूछा : ‘क्या आप गंभीर लेखक हैं?’ मैंने जवाब दिया : ‘मैं गंभीर होने की पूरी कोशिश करता हूं, लेकिन लिखने की खुशी बार-बार मुझे गंभीर होने से रोक देती है।’ फिर मैं सोचता हूं कि क्या एक खुशमिजाज लेखक को गंभीरता से लिया जा सकता है? पता नहीं। लेकिन यह तो तय है कि जिस दिन मैंने लेखन को ही अपनी जिंदगी माना था, तब वह एक बेहद गंभीर फैसला था। लेकिन इसके लिए नौकरी, सुरक्षा, सहूलियत, घर-परिवार जैसी कुर्बानियां देनी पड़ती हैं। यदि मैंने पच्चीस वर्ष की उम्र में ब्याह कर लिया होता तो क्या तब मुझे मिला एक बहुत अच्छी नौकरी का प्रस्ताव इतनी आसानी से ठुकरा पाता? यदि मैं वह नौकरी कर लेता तो आज मुझे पेंशन मिल रही होती, लेकिन पेंशन की किसे टेंशन है? सबसे जरूरी बात यह है कि मैंने अपनी जिंदगी आजादी के साथ बिताई है और लगातार लेखन किया है, चाहे आजीविका के लिए ही सही। लेखक की जिंदगी पर पकड़ कभी ढीली नहीं होनी चाहिए। बहुत-से लेखक एक सुरक्षित भविष्य की चिंता में जीवन में समझौते कर लेते हैं। मुझे खुशी है कि मैंने ऐसा नहीं किया और यही कारण है कि मैं अपने आपको खुशकिस्मत समझता हूं।

Saturday, November 30, 2019

कोहरा

                             कोहरा

मुझे याद है ठंड के दिनो मे उन दिनो 8 बजे तक गहरी धुंध रहती थी। घर से बाहर निकलते ही हमे बाहर खडी साईकिल के अलावा कुछ भी दिखाई नही देता था। हमारी मां हमे स्कूल के लिए तैयार करती । मै और मेरा छोटा भाई दोनो गहरे कोहरे मे स्कूल के लिए घर से निकलते। दोनो के  हाफ पेंट पहनी हुई होती थी। मुझे याद नही हम हाफ पेंट क्यो पहनते थे। उस समय चलन था या पैसो की तंगी। शर्ट पर एक स्वेटर डाला रहता था। पैरो मे रबड़ की चप्पल। कोहरे मे कुछ भी दिखाई नही देता था। ठंड मे हम दोनो भाईयो के पैरो और हथो पर लालासी छा जाती थी। मुंह से धुंध का धुआं निकलता था। छोटे जोर से मुंह से सांसे छोड़ता तो धुऐं की तरह तरह धुंध निकलती। कुछ देर हम दोनो मुंह से धुंध का धुआं छोड़ते और एक दूसरे को देखकर खिलखिलाकर हंसते। ठंड इतनी थी कि नाखूनो मे खून जमने लगता। हमे इससे कोई फर्क नही पड़ता। छोटे आगे भागकर कोहरे मे गायब हो जाता तो मै दौड़कर उसे पकड़ लेता। कभी मै भागकर कोहरे मे छिप जाता तो वो मुझे पकड़ लेता। ठंड से  पूरी टांगे लाल हो जाती। छोटे कहता ठंड लग रही हे तो मै बताता कि मम्मी ने कहा है कि जिस दिन कोहरा होता है उस दिन धूप जरूर निकलती है। हम स्कूल पहुंचते तब तक धूप नही निकलती थी। हमारा स्कूल खुले मे ही था। एक मैदान मे कमरे बने हुए थे। मेरे और छोटे कि क्लासे आमने सामने थी। हम आसमान मे दूखते फिर एक दूसरे को। धूप अभी भी नही निकली थी। कोहरा क्लासो के अंदर तक था। हाथ से पेंसिल भी पकड़ नही पा रहे थे। टांगो को ठंड से बचाने के लिए एक टांग को दूसरी टांग पर रख लेते थे। इतनी ठंड मे एक ही बात गरमी देती थी कि मां ने कहा है कि कोहरे वाले दिन धूप जरूर निकलती है।  आधी छुट्टी हो गयी। कोहरा अभी भी था। छोटा अपना टिफिन लेकर मेरे पास दौड़ता आया। ठंड से कंपकंपा रहा था। उसने कहा धूप तो निकली नही। मैने कहा मां ने कहा है कोहरे वाले दिन धूप जरूर निकलती है। हम टिफिन लिए कोई कोना खोज रहे थे कि मैदान मे धूप आ गयी। मेरे ओर छोटे के होठ फैल गये। मैने कहा था ना कि मां ने कहा है कोहरे के दिन धूप जरूर निकलती है।  हम दोनो धूप मे बैठकर दोपहरी करने लग गये। आज भी कोहरा होता है तो मां की बात जरूर आती है कि जिस दिन कोहरा होता है उस दिन धूप जरूर निकलती है।





Thursday, October 31, 2019

बड़े जोर की पड़ी थी नाना की बेंत

मैने अपना बचपन नानी के पास ही बिताया है। नानी से इतना लगाव था कि मेरे ज्यातर समय नानी के घर पर ही बितता था।  मेरी शादी होने तक रात को मै नानी के घर ही सोता था।मैने मेरे बचपन की सारी बदमाशिया नानी के घर ही करी है। ये नही है कि नानी के घर हमे डाटने वाला नही था इसलिए दुनियाभर की ऊधम हम वहां कर लेते थे। एक बार मैने अपने एक दोस्त के कहने से बीड़ी के सुट्टे का कस लगा लिया थाः जिस समय मे सुट्टे का कस लगा रहा था उसी समय नाना वहां से गुजर रहे थे। उन्होने मुझे देख लिया। मै उन्हे देख नही पाया और सुट्टे के जोर से कस लगा रहा था। सुट्टे के कस लगाने से नाक से धुंआ निकलता देख हम बच्चे लोग हंस रहे थे। शाम को मैं नानी के घर पहुंचा तो नाना आंगन के बीच मे कुर्सी लगाकर बैठे थे। नाना को देखते ही मै तो पत्थर की मूर्ति हो गया न पांव आगे खिसक रहा था और न पीछे सरक रहा था। दिल जोर जोर से धड़क रहा था। रोना भी आ रहा था लेकिन नाना की गुस्से से भरी आंखे देखकर मेरी आंखो के आंसू ठहर गये। अभ मै मन ही मन.प्रार्थना कर.रहा था कि कही से नानी आ जाये। नानाजी ने भी मौका देखकर अदालत लगायी थीः नानी आज महाराज जी की कथा सुनने गयी हुई थी। अब मै भागने की कोशिश करू तो ऐसा लग रहा था मानो मेरे पैर जमीन पर चिपक गये हो। नाना.बोल कुछ नही रहे थे। उनके नथुने फुले हुए थे। वो खड़े हुए। चलकर मेरे पास आये। उनके काले रंग की जूतियां पहने हुए थी। वो जब चलकर मेरे पास आ रहे थे मुझे लग रहा था जैसे गब्बरसिंह अपना बेल्ट हाथ मे लिए मेरे पास आ रहा है। मेरे नजदीक आकर हाथ मे पकड़ी हुई छड़ी से मेरी ठुडी ऊपर उठाकर पूछा- क्यों बड़ा मजा रहा था।? खूब कस लगाये जा रहे थे। छड़ी मेरी ठुडी पर अटकी हुई थी। छड़ी जोर की चुभ रही थी। मैने अपनी आंखो के गोलो को ऊपर की ओर घूमा कर देखना चाहा। मुझे केवल नाना की दाढ़ी दिखाई दे रही थी। मै कुछ बोलना चाह रहा था परन्तु आवाज गले मे ही आकर रह गयी। मै बोलने के लिए अपने होठ खोलता उससे पहले ही सड़ाक से एक बेंत मेरे पिछवाड़े पर पड़ी। मैं अपनी हथेली से पिछवाड़े को रगड़ने लगा। बेंत की बड़ी जोर से लगी थी। मै कुछ ओर बोलता इससे पहले एक बेंत और पड़ी।  मेरे ठीक पीछे दरवाजा था। जोर की दो बेंत पड़ने के बाद और खाने की हिम्मत नही थी। मै दरवाजे से बाहर निकल गया। नाना मेरे पीछे आ गये। मै आगे चल रहा था पीछे नाना। बेंत पिछवाड़े पर पड़ रही  थी। नाना के डर से भाग नही पा रहा था। अब मेरी चिल्लाहट निकलने लगी थी। मै रोता हुआ चल रहा था पीछे नाना बेंत मारते हुए चल रहे थे। रोते हुए.मै आंसू पोंछते हुए चल रहा था। कुछ दूर चलने के बाद बेंत पड़नी बंद हो गयी। मैने नजर उठाकर देखा सामने नानी खड़ी थी। मै दौड़कर नानी से लिपट गया। अब नाना पत्थवरवत खड़े हो गये। नानी ने मेरे माथे पर हाथ फेराः फिर अपने पल्लू से अपने होठ के निचले हिस्से से पोंछते हुए बोली- जल्लाद हो गये हो क्या। छोरे की जान लेओगे क्या। ऐसा क्या कर दिया इसने। कुछ किया भी है तो ये कौनसा तरीका है समझाने का। नानी मुझे घर ले गयी। बाद मे नानी को मेरी बदमाशी का पता चला तो बहुत जोर से डांटा और कहा असकी बार ऐसा किया तो मै तेरे नाना को सजा देने से नही रोकूंगी। आज भी मै किसी बुरी चीज की ओर हाथ बढ़ाता हुं नाना की बेंत और नानी की डांट का स्मरण हो जाता है और मै बुरा काम करने से रूक जाता हुं।