आज से कई साल पहले संचार का माध्यम डाक था। हम
दूर बैठे दोस्तो, रिश्तेदारो का हाल चिटठी पत्री के जरिये ही जानते थे। मै अपने
डाक का पत्ता यही लिखता था कि लूणजी के गैरेज के पीछे वाली गली। लूण जी का गैरेज
हमारे लिए पत्ते का निशान ही नहीं था बल्कि उसके इर्दगिर्द हमारी दुनिया घूमती थी।
स्कूल से कोई दोस्त मिलने आता तो मै यही कहता था कि लूण जी के गैरेज पर आकर किसी
को पूछ लेना हर कोई मेरा घर बता देगा। मां भी कभी कभार कह देती कि तेरे पापा देर
से आयेगे तु दौडकर लूण जी के गैरेज से सब्जी ले आ। मै दौडकर लूण जी के गैरेज से
सब्जी ले आता। हम बच्चे गली में आंख मिचौली खेलते तो कोई बच्चा छिपने के लिए
लूण जी के गैरेज चला जाता और फिर वह हमे मिलता ही नहीं। फिर वही जीत जाता। आंख
मिचौली खेलते समय हमे यह नियम बनाना पडता कि कोई भी लूण जी के गैरेज तक छिपने के
लिए नहीं जायेगा। वैसे तो पत्ते की निशानी के लिए हमारे यहां दूसरी बडी चीजे भी
थी परन्तु पत्ते की निशानी के लिए लोग लूण जी का गैरेज ही इस्तेमाल करते थे।
हमारे यहां शहर का प्रसिद्ध जस्सूसर दरवाजा भी है फिर भी लोग पत्ते के लिए लूणजी के
गैरेज का ही इस्तेमाल करते थे। एक बार मेरे मामाजी का लडका खो गया था। मेरे मामा
जी गंगाशहर में रहा करते थे। उस समय मोबाईल नही थे। ढुढने के लिए स्वयं ही
निकलना पडता था। मेरे पापाजी, चाचाजी और मामाजी ने साईकिल पर पूरा शहर छान मारा
लेकिन मामाजी का लडका कहीं नहीं मिला। फिर थक हारकर पापाजी ने कहा लूण जी के गैरेज
चलते है वहां कोई रास्ता निकलेगा। पापाजी और मामाजी लूण जी के गैरेज गये तो वहां
वो एक दुकान पर खडा मिल गया। लूण जी के गैरेज पर भीड इतनी रहती थी कि कोई अपनी
खोयी हुई चीज ढुंढने वहां आ जाता था।
लूण जी का गैरेज दरअसल हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण
स्थान था। आपके दिमाग में आ रहा होगा कि वो कोई गैरेज होगा जहां बहुत सारी गाडिया
खडी रहती होगी यहां कोई गाडिया ठीक करने का कारखाना होगा जहां लोग दूर दूर से गाडी
ठीक कराने आते होगे। यह भी सोच लिया होगा कि गाडियो के स्पयेर पार्टस वहां मिलते
होगें। आप यह भी सोच सकते है कि गाडिया रूकने का स्टोपेज होगा जहां गाडिया और
टेक्सियां आकर रूकती होगी। मै जब छोटा था तो मेरे को भी पता नहीं था कि उस जगह का
नाम लूण जी का गैरेज क्यो है। मै भी और लोगो की तरह कहने लग गया लूण जी का गैरेज।
मेरी मां कभी बडे बाजार जाती तो तांगा लूणजी के गैरेज से ही करती। बडे बाजार से
वापसी का तांगा करती तो तांगे वाले को यही कहती कि लूण जी का गैरेज छोड देना। लूण
जी गैरेज आप जैसा सोच रहे वैसा बिलकुल भी नहीं था। हमारे घर से थोडी दूर पर एक
चौराहा था जहां से एक सडक सीधे पूगल रोड तक जाती थी। वह सडक शहर के दूर स्थानो पर
जाने के लिए संपर्क सडक थी। सडक के दोनो और सब्जी के ठेले, पान की दुकान और कई
छोटी छोटी दुकाने लगी रहती थी। सडक के बायीं ओर दुकानो के पीछे था लूण जी का
गैरेज। गैरेज में मैने कभी कोई गाडी खडी नहीं देखी। जगह ऐसी थी कि कभी कोई गाडी
वहां खडी हो ही नहीं सकती। दुकान के पीछे एक टूटी फुटी दीवार थी जिसको लोगो ने
सार्वजनिक मुत्रालय बना रखा था। दीवार की सीमेंट लगभग उतर चुकी थी। ईंटे दिखाई दे
रही थी। नीचे कई ईंटे तो टुट गयी थी। वहां बडे बडे छेद हो गये था जिनसे लूण जी के
गैरेज के अंदर झांक सकते थे। लेकिन लूण जी के गैरेज में झांकने की जरूरत ही नहीं
थी। आगे की तरफ की दीवार थी बाकि दोनो ओर की दीवार टूट चुकी थी। लूण जी के गैरेज
में एक पूराना पेड था। जिस पर खेलते खेलते हम चढ जाते थे। कई बार बैर तोड्ने के
लिए हम किसी को चढा देते थे। पूगल जाने वाली एक प्राइवेट बस वहां रूकती थी। वहां
के दुकानदारो की अधिकांश बिक्री इसी बस से होती थी। गांव के लोग शहरो की चीजे यहीं
से खरीदते थे। बस ज्योंही लूण जी के गैरेज पर आकर रूकती। दुकानदार हाथ में चने के
पैकेट, टाफी के पैकेट, ठंडे की बोतले लेकर बस में चढ जाते थे।
पूगल की बस वहां आकर रूकती तो लूण जी के गैरेज
की रौनक बढ जाती। बस से यात्री चाय पानी पीने के लिए उतरते । दुकानदारो की आवाजे
शुरू हो जाती। पैकेट दो रूपया------- दो रूपया-------। आज का अखबार------- आज का
अखबार । मै स्कूल से आता तो कई बार वहां खडा हो जाता और यह सब देखता। एक जवान सा
बच्चा हाथ में चने के दो चार पैकेट लिए घूमता। बस में भी जाता। वह कुछ बोलता नहीं
था। कोई उससे पूछता तो ईशारे से ही बता देता। वो बस आने पर दो चार पेकेट बेच लेता।
उसका वहां खोखा था जिसमें चने और मूंगफली बेचता था। मै एक बार उससे मूंगफली लेने
गया तो मेरे को पता चला कि वो बोल नहीं सकता है। वो बोल भले नहीं सकता था परन्तु
वह सुंदर बहुत था। सुबह उसके पिताजी दुकान पर बैठते थे और दोपहर बाद वो बैठता था।
दुकान में एक रेडियो रखा हुआ था जिस पर
दोपहर में आल इण्डिया रेडियो की उर्दू सर्विस चलती थी। इतनी भीड भाड में
रेडियो के गाने उसके खोखे पर ही साफ सुनाई नहीं देते थे। परन्तु दोपहर को उस
रेडियो् पर आल इण्डिया रेडियो की उर्दू सर्विस जरूर बजती।
लूण जी के गैरेज के थोडा आगे ही उसका खोखा लगा
था। बिलकुल सडक के किनारे पर । उसका खोखा मौके पर लगा था। बस उसके खोखे के आगे ही
आकर रूकती। मेरे को कभी चना या मूगफली लेनी होती तो मै उसी लडके की दुकान से लेता।
हम खेलते हुए उसके पास पहुंच जाते तो वो मुस्कुरा देता। हम भी उसके ईशारे समझने
लगे थे। पानी के लिए वो खोखे पर बादला रखता था। बादला खाली होता तो हम लोग उसे
भरकर ला देते थे। लूण जी के गैरेज पर दोपहर में भीड बहुत होती थी क्योंकि दोपहर
में ही पूगल वाली बस आकर रूकती थी। शाम को सब्जियो के ठेलो पर भीड होती थी। सडक के
किनारे दुकाने लगी होने से सडक बहुत छोटी हो गयी थी। सडक पर वाहनो के आने जाने और
पैदल जाने वालो के लिए बहुत कम जगह बचती थी। शाम को उस लडके की दुकान पर भीड नहीं
होती थी तो कई हम बच्चे उसकी दुकान पर चले जाते । हम उस लडके से बाते करते तो वो
सुनता रहता। कोई जवाब नहीं देता। कोई बात उसे पसंद आती तो वो मुस्कुरा देता। कुछ
हम लोग पूछते तो ईशारे से बता देता। वो हमारे बहुत घनिष्ठ हो गया था या यों कहे
हम बच्चो का दोस्त बन गया था। सडक पर कोई वाहन निकलता तो वो ईशारे से हमे किनारे
होने के लिए कहता। मैने उसको अपने बर्थडे पर बुलाया था परन्तु वो नहीं आया। उसने
ईशारो में बताया था कि वो खोखा छोडकर नहीं आ सकता । हम लोगो को उसका बर्थडे भी पता
लग गया था। कल ही था उसका बर्थ डे । हम सब लोग मिलकर उसे गिफट देने वाले थे। हम
उसके लिए एक रेडियो लाये थे। नया रेडियो। उसका रेडियो पूराना हो चुका था। हम बच्चो
में बहुत उत्साह था कि हम उसे बर्थ डे पर रेडियो गिफट मे देगे। हमारे लिए अब अगले
दिन की दोपहर का इंतजार हो रहा था। हम सोच रहे थे कि हम ज्योहि रेडियो उसे गिफट
मे देंगे। उसकी आंखो में चमक आ जायेगी।
अगली सुबह हम स्कूल गये। स्कूल से आकर हम
रेडियो लेकर सीधे लूणजी के गैरेज गये। वहां कुछ नहीं था। कोई दुकान और खोखा नहीं
था। सडक बिलकुल खाली थी। एक खडे लोग बात कर रहे थे। सरकार ने सभी खोखो और दुकानो
को हटा दिया। सरकार सडक चौडी करेगी। हम गिफट हाथ में लिये थे। उस लडके के खोखे
वाली जगह देख रहे थे। अब वहां खोखा नहीं था । सामने लूण जी का गैरेज दिखाई दे रहा
था।
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