Sunday, May 29, 2022

रेत की छुअन

मैदानी इलाको में गरमी बहुत तेज पडती है। भीषण गरमी में मैदानी ईलाको के लोग ठंडे स्‍थानो की ओर घूमने निकल जाते है। खासकर रेगिस्‍तानी इलाको के लोग भीषण गरमी से राहत पाने के लिए पहाडो की ओर जाते है। ऐसे मौसम में यदि बर्फ मिल जाये तो सोने पे सुहागा हो जाय। वहां बर्फ की छुअन रेगिस्‍तान की गरमी को कुछ क्षणो के लिए भुला देती है। वहां पहाडो पर गिरी हुई बर्फ को उठाकर एक दूसरे पर मारते है तो उसकी छुअन देह की सारी गरमी को सोख लेती है। ऐसे कोमल अहसास के लिए ही रेगस्तिानी लोग पहाडो का रूख करते है। रेगिस्‍तान में गांवो में आप जाकर देखो तो आपको पीले पीले टीले ही नजर आते है और गरमीयो की धूप में तो सोने जैसे चमकते है। आपको चारो ओर रेत के टीले ही टीले दिखते है और कहीं भी कोई पेड पौधा नहीं। आपको कहीं पेड दिखेगा भी तो खेजडी का। दूर दूर तक जहां तक आपकी नजर जाती है रेत के टीले ही टीले दिखाई देते है। गरमीयो की तपती धूप में इन टीलो पर आपको पानी जैसी भ्रमजाल वाली आक़ति दिखाई देती है। जिसे देखकर प्‍यासे राहगीर को पानी का अहसास होता है परन्‍तु वह पानी होता नहीं है। रेत के टीलो में आपके पसीने से टपकने वाला ही पानी होता है और कहीं पानी नहीं होता है।

मैं गरमीयो के कई बार ऐसे टीलो के बीच गया हूं। मैं तपती दोपहर में शौक से टीलो पर नहीं गया बल्कि सरकारी काम से जाना पडा। सरकारी काम से एक तहसील से दूसरी तहसील जाते है तो आपको टीलो में से गुजरना होता है। एक यही कारण है जिससे मुझे भरी दोपहरी में कई बार इन टीलो में जाना पडा। एक बार मेरे मामा के मि्त्र मुझसे मिलने मेरे आफीस आये तो रेत के टीलो के बारे मे उनकी बात सुनकर मै दंग रह गया। वैसे तो उनका नाम जयशंकर था परन्‍तु प्रेम का नाम चौपाया था। चौपाया मामा ने बताया कि मै और मेरा भाई दोपहरी में नंगे पैर रोही में चले जाते है। रेगिस्‍तानी इलाको को गांव और शहर के बाहर के इलाके को रोही कहा जाता है जो प्राय जंगल होता है। मैने पूछ लिया दोपहर में आप रोही में क्‍या करते हो। उन्‍होने कहा कि हम दोनो नंगे पैर जाते है और टीलो पर जाकर लेट जाते है। तपती हुई धूप हमारी देह को छुती है तो हमे बडा आनंद आता है और हमारी देह विषाक्‍त किटाणुओ से मुक्‍त हो जाती है। गरमीयों में टीलो पर रेत इतनी गरम होती है कि आप पापड सेक सकते हो। ऐसी धूप में वे दोनो टीलो पर लेट जाते थे। उन्‍होने बताया कि जब धूप ढलने लगती तो हम घर को लौटते। मै जब चौपाया मामा के बारे में सोचता हूं तो मेरी आंखे आश्‍चर्य से फटी रह जाती । इतनी धूप में उनका बदन पूरी तरह सिक जाता होगा परन्‍तु उनके चेहरे और देह पर किसी जलन का चिन्‍ह दिखाई नहीं देता था। उनका चेहरा पूरी तरह लाल दिखाई देता था।

रेत की छुअन का अहसास तो मैने भी किया है परन्‍तु चौपाया मामा जैसा नहीं । रेत जैसे दिन में तपती है राज को उतनी ही जल्‍दी ठंडी हो जाती है। मै बचपन में एक बार अपने मोहल्‍ले के ताउजी के साथ बजरंग धोरा गया था। बरसात के बाद के दिन थे जब थोडी थोडी ठंड शुरू हो जाती है। वहां एक बडा सा टीला था। हम सभी मित्र वहां टीले पर खूब घूमे। बिना चप्‍पल हम रेत पर घूम रहे थे। ठंडी ठंडी छुअन हमे रोमांचित कर रही थी। इस छुअन को शब्‍दो में बयां नहीं किया जा सकता था। हमने एक बडा गडडा खोद एक मित्र को खडा कर उसमें रेत डाल दी। मित्र आधा रेत के अंदर था। ऐसा हम सभी ने बारी बारी से किया। रेत से भरे गढढे में रेत की छुअन पूरे बदन को कोमलता का अहसास देती थी। ऐसी छुअन बर्फ में भी नहीं होती है। भरी गरमीयों में रात को आपको रेत इतनी ही ठंडी मिलेगी। यहां जन्‍मे साहित्‍यकारो ने तो ठंडी रात में रेत के टीलो से दिखाई दे रहे चांद पर बहुत सारा काव्‍य लिखा है।

ठंड के दिनो में तो रात को रेत बर्फ जैसी ठंडी हो जाती है। उस पर नंगे पांव रखना भी मुश्‍किल हो जाता है। एक बार ठंड में मैं हमारे शहर के नजदीक पुनरासर धाम गया । वहां भी बहुत सारे रेत के टीले है। रात और सुबह तो वहां पैर रखा ही नहीं जा रहा था। जैसे ही धूप निकली रेत में गरमी आने लगी। सुबह की धूप मे हम सब टीलो पर लेट गये। ऐसा धूप सेवन मैने एक बार समुद्र के किनारे किया था। वहां लोग धूप में समुद्र के किनारे पर लेटे हुए थे। हम जब पुनरासर में लेटे हुए थे तो हम वो अहसास हो रहा था जो बिरलो को ही मिलता है। रेत ठंडी से गरम हो रही थी और उसकी छुअन हमारी देह में रोमांच पैदा कर रही थी। सुबह हम जब रेत के टीले पर लेटे हुए थे तो उस समय धूप कम थी तो टीले पर एक कीट जैसा जानवर गोबर के ढेले को लुढकाता हुआ ले जा रहा था। यह रेगिस्‍तान के टीलो में पाया जाता है। हम सब की नजरे उसी कीट पर थी। वो उसे लुढकाता हुआ टीले के उस पार ले गया। यह द़श्‍य कैमरे में कैद करने लायक था। हमने कैद भी किया। मै रेत की छुअन की वो याद हमेशा संजोये रखता हूं।

बचपन में तो रेत ही हमारी मित्र थी। उन दिनो शहर के गली मोहल्‍लो में सडके नहीं हुआ करती थी। घरो के आगे मोहल्‍लो में रेत ही रेत थी। टीले तो नहीं कह सकते परन्‍तु चलते थे तो रेत उडती थी। संडे वाले दिन हम सुबह से घर के आगे रेत में खेलते रहते थे। एक छोटा सा गढढा करके कंचे खेलते थे। खेलते हुए हमारे घुटनो से लेकर चेहरे तक मिटटी चिपक जाती थी। हमारे घुटनो पर कोई छोटी मोटी चोट लगती तो मां दवाई नहीं लगाती थी। कहती थी मिटटी लगाले ठीक हो जायेगी। रेत खेलते हुए मिटटी चोट पर गिरती और कुछ ही दिनो में चोट ठीक हो जाती। रेत से इतने सने हुए होते थे कि नहाते वक्‍त हमे साबुन की जरूरत ही नहीं पडती थी। हमे नहलाकर कमरे में बिठा दिया जाता और निर्देश दिया जाता कि अब कोई मिटटी में खेलने नहीं जायेगा। शाम को हम फिर मिटटी में खेलने चले जाते । मिटटी पर खेलते हुए घास से भी ज्‍यादा कोमलता का अहसास होता।

बचपन में तो जानबुझ कर रेत और मिटटी में खेलते थे परन्‍तु एक बार तो हम वैसे ही रेत में नहाये जा रहे थे। हमारे शहर मे एक बार पांच दिन तक लगातार धूल भरी आंधी आयी। आंधी ऐसी कि पांच दिन में एक क्षण के लिए भी नहीं रूकी। रात को छत्‍त पर सोते तो सुबह धूल से सने हुए होते। चाय भी हमे कमरो में छिपकर पीनी पडती थी ताकि चाय मे रेत न गिर जाये। नहाने के कुछ देर बाद ही हम सब रेत से सने हुए भूत जैसे दिखाई देते थे। बालो से लेकर चेहरे और कपडो में रेत ही रेत हो जाती थी। घर साफ करते थे तो झाडू से रेत हटते ही वापिस बिछ जाती। जहां झाडू नहीं लगाया वहां तो रेत के छोटे छोटे टीले बन गये। हम लोग ने उस आंधी को रोकने के लिए कई तरह के टोटके भी किए। किसी ने सुबह सुबह घर के आगे लोटे से पानी गिराया। हमारे पडोसी ने तो अपने छोटे बच्‍चे को नंगा करके छत्‍ पर घूमाया।  मंदिर के पुजारी जी ने बडे वाला शंख् शाम को बजाया परन्‍तु आंधी लगातार चलती रही। पांचवे दिन जब सुबह उठे तो हवा बंद थी तो सबने राहत की सांस ली।

रेगिस्‍तान में रेत की छुअन का अहसास रूमानी होता है। और किसी के लिए रेत परेशानी का सबब हो सकती है परन्‍तु यहां के लोगो के लिए तो वह संगिनी है। वो जीवन के साथ साथ चलती है। आप उसे लाख बुरा मान सकते हो परन्‍तु आप उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते हो। वो आपको अपनी उपस्थिती का अहसास कराती रहेगी।   

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Sunday, May 15, 2022

कहानी- आत्‍मा का प्रलाप

 

इन दिनो आफीस से आते वक्‍त देर हो जाती थी। गरमीयो में तो इतना पता नहीं चलता था परन्‍तु सर्दीयों में घर पहुंचता थो तो धनघोर अंधेरा हो जाता था। कडाके की ठंड में रात को लौटते वक्‍त ऐसा लगता था कि नौकरी को छोड दूं परन्‍तु फिर भी नौकरी करता। नौकरी करता क्‍या अभी भी कर रहा हूं। अब इतनी देर नहीं होती है जितनी उन दिनो हो जाती थी। उन दिनो आफिस से घ्‍र आते ही ऐसे लगता था कि सीधे सो जांउ। खाने की भी ईच्‍छा नहीं रहती थी। ऐसा महसूस होता था कि मै किसी जेल का कैदी हू और मुझे रोज रात घर पर बिताने की पैरोल मिलती है। उन दिनो में बहुत परेशान रहता था। रात को आफिस से घर आता, खाना खाते ही सो जाता। बाकि दुनिया में क्‍या हो रहा है, उससे मुझे कोई मतलब नहीं रहता था। यहां तक की मैने सामाजिक कार्यक्रमो मे भी जाना बंद कर दिया था। बंद भी क्‍या कर दिया था, दरअसल मुझे सामाजिक कार्यक्रमो में जाने का समय ही नहीं मिल पाता था। उन्‍ही दिनो में एक दिन किसी खास कारण से दिन भर परेशान रहा। रात होते होते परेशानी ज्‍यादा बढ् गयी। परेशानी ऐसी थीकि ऐसा लग रहा था जैसे मेरी आत्‍मा रो रही हो। किसी दुख से बुरी तरह से पीडित हो रही हो। ऐसा महसूस होता था कि आत्‍मा असहाय महसूस कर रही है। थके थके कदमो के साथ मै घर लौट रहा था। माथे में परेशानीयो का बोझ था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। घर पहुच कर खाना खाया और सोने के लिए चला गया। मेरे घर का आंगन खुला है। उन दिनो सर्दी भी कम थी। इसलिए मैं आंगन में खाट डालकर सोता था। उस दिन कुछ ज्‍यादा ही परेशान था। मै आंगन में खाट डालकर सो गया। नींद नहीं आ रही थी। आंगन से आसमान दिखाई देता था। काले आसमान में तारे चमक रहे थे। नजरे तारो पर थी परन्‍तु माथे में परेशानी । सोच रहा था कि मेरी आत्‍मा कभी प्रसन्‍न नहीं रही होगी। मैने अपनी आत्‍मा को बहुत परेशान किया है। मै अपने विचारो में उलझ गया था। इसी उलझन में मेरी आंख लग गयी।

आधी रात को मेरी आंख खुल गयी। मैं उठकर बैठ गया। मेरे को ऐसा लगा किसी ने मेरे को आवाज दी है परन्‍तु मेरे कानो ने तो कोई आवाज सुनी नहीं। फिर मेरे को लगा किसी ने तो मेरे को आवाज दी है। मैने इधर उधर देखा कोई नहीं था। चारो ओर घोर घूप अंधेरा था। दोबारा सोने के लिए वापिस लेटने लगा था तो फिर मेरे को लगा किसी ने आवाज दी है। इस बार भी आवाज सुनाई नहीं दी परन्‍तु मुझे महसूस हुआ कि किसी ने मेरे को आवाज दी है। एक बार फिर मैने दांये बाये और उपर नीचे सभी जगह देखा। कोई नहीं था। पर मेरे को आवाज कौन लगा रहा है। आवाज सुनाई नहीं दे रही है परन्‍तु महसूस हो रही है। फिर आवाज आयी- किसे ढुंढ रहे हो ?

कौन हो ?

मै तुम्‍हारा आत्‍मा ।

आत्‍मा ?

हां। आत्‍मा । वहीं जिसे तुम कोस रहे हो। जिसके लिए तुम दुखी हो रहे हो। वही आत्‍मा ।

यह सुनकर मैने अपने माथे को खुजाया और फिर कहा- मुझे दिखाई नहीं दे रही ।

मै दिखाई नहीं देती हूं।

पर आवाज कैसे लगायी।

आवाज तुमको सुनाई दी।

नहीं।

मेरी आवाज भी सिर्फ महसूस की जा सकती है।

मैंने फिर आसमान की ओर देखा। कुछ दिखाई नहीं दिया। कोई धुआ धुआ सा देखने की कोशिश की। कुछ दिखाई नहीं दिया परन्‍तु सब कुछ महसूस किया। ऐसा लगा कोई तो है जो मुझसे बात कर रहा है। मैने पूछा- मै तुम्‍हे कैसे जान सकता हूं।

तुम मुझे महसूस कर रहे हो न ।

हां। कर रहा हू।

हां मै वही हूं।

यहां क्‍यों आयी हो ?

आयी हो? मै गयी कहां थी। मै तो हमेशा तुम्‍हारे पास हूं।

मेरा मतल‍ब मुझे आवाज क्‍यों दी ? मैने हैरान होते हुए पूछा।

आवाज तो तुमने दी थी। मेरी आत्‍मा रो रही है। मेरी आत्‍मा दुखी है। मै यह पूछ रही हूं कि मै दुखी क्‍यों हू। मै रो क्‍यों रही हूं।

मै सोच रहा था इसका मैं क्‍या जवाब दूं। फिर भी मैने रूक कर कहा- जब मै तुम्‍हे प्रसन्‍न करता हूं तो भी तो कहता हूं कि मेरी आत्‍मा आज प्रसन्‍न है।

ऐसा कब कहा तुमने ?

आत्‍मा के इस जवाब के बाद मै एक बार फिर सोचने लगा।  सोच कर मैने कहा – तीन महीने पहले की बात है। शादियो को सीजन था। मैं मेरे दोस्‍त की शादी में गया था। दोस्‍त पैसे वाला था। उसने शानदार आयोजन किया था। उसकी शादी में पहुचते ही मन प्रसन्‍न हो गया। शहर के बडे होटल में शादी थी। शानदार शामियाना लगाया हुआ था। अंदर प्रवेश करते ही विभिन्‍न प्रकार की खूशूबूओ का स्‍प्रे किया जा रहा था। मधुर संगीत बज रहा था। दुल्‍हा दुल्‍हन मंहगे स्‍टेज पर बैठे थे। बहुत खूबसूरत लग रहा था। मेहमानो को सबसे पहले सूप दिया जा रहा था ताकि अच्‍छी भूख लग सके। खाने में सैकडो प्रकार की वैरायटी थी। मैने हर आईटम का आनंद लिया। राजभोग से लेकर आईसक्रीम तक हर एक चीज लाजवाब थी। पूरी शादी का एंजोय करने के बाद बाहर निकला तो मेरे मुंह से एक ही बात निकली कि – आज तो मेरी आत्‍मा प्रसन्‍न हो गयी।

आत्‍मा ने जवाब दिया- खाना तुमने खाया और मै प्रसन्‍न कैसे। खाने से मेरी संतुष्टि कैसी। मै तो बदहवास सी संतुष्टि के लिए बैचेन थी और तुमने कह दिया कि मै संतुष्‍ट हूं। तुम्‍हारे खाने ने तो मुझे और बैचेन कर दिया। मेरी प्रसन्‍नता को कभी महसूस करो तो पाओगे कि मुझे क्‍या चाहिए। तुमने कभी इसका प्रयास ही नहीं किया।

मैने आत्‍मा को अपने जवाब से संतुष्‍ट करने के लिए एक और घटना सुनायी – मै पिछली गरमियों में घूमने के लिए  अपने दोस्‍तो के साथ मसूरी गया। पहाडो का सौंदर्य देखकर मन प्रसन्‍न हो गया। वहां कंपनी बाग में तो दिल बाग बाग हो गया। वहां हजारो तरह के फूल है। आदमी फूलो के सौंदर्य में खो जाता है। वहां बडे लेकर छोटे छोटे फूल भी थे। बडे फूल मैने पहली बार देखे थे। उनके नजदीक जाकर कुछ देर खडा हो गया। सब कुछ भूल गया था। वहां मुझे लगा आज मेरी आत्‍मा संतुष्‍ट हो गयी।

मेरे इतना कहने के बाद कुछ देर शांति छायी रही । फिर आत्‍मा ने जवाब दिया- तुम इसे कैसे मेरी संतुष्टि समझ सकते हो। फूलो के बाग से तुम्‍हारा मन प्रसन्‍न हो मै कैसे प्रसन्‍न हो गयी। तुम तो उस बाग के सौंदर्य में खो गये। मै तुम्‍हे बैचेन होकर ढुंढती रही कि तुम कहां चले गये। इस संतुष्टि को तुम मेरी संतुष्टि कैसे मान सकते हो। पहाडो के सौंदर्य और फूलो की कोमलता के बीच तुम मुझे तो भूल गये। वास्‍तविकता यह है कि तुमने कभी मुझे प्रसन्‍न करने का प्रयास किया ही नहीं ।

आत्‍मा के इस जवाब के बाद एक बार फिर मै सोच में पड् गया कि मै अब कौनसी घटना का स्‍मरण आत्‍मा को कराउ ताकि वो मान जावे कि मैने हमेशा से ही उसे संतुष्‍ट रखने का प्रयास किया। मुझे तत्‍काल एक घटना स्‍मरण हो आयी जिसे मैने आत्‍मा को सुना दिया- एक रात मै अपने दोस्‍त के साथ रेल्‍वे स्‍टेश्‍न से घर आ रहा था। स्‍टेशन से थोडी दूर चलते ही सडक के किनारे एक बुजुर्ग हमारे पीछे हो गया। वो हमसे भोजन की गुहार कर रहा था। कह रहा था कि उसके बच्‍चे दो दिन से भूखे है। मेरे दोस्‍त ने कहा कि ये इनका रोज का नाटक है। ऐसा कह कर वो आगे चलने लगा। मुझे लगा कि बाबा भूखा है। मैने उससे कहा कि – बच्‍चे कहा है। तो वो अपने बच्‍चो के पास ले गया। बच्‍चे भूख से तडप रहे थे। मैने उसको बहुत सारा भोजन और दूध्‍ दिलाया। मैने वहां देखा कि बच्‍चे भोजन खाते हुए अत्‍यंत प्रसन्‍न हो रहे थे। उस दिन मेरी आत्‍मा बहुत प्रसन्‍न हुई। मुझे लगा कि मेरी आत्‍मा आज प्रसन्‍न है। उस दिन वाकई मेरी आत्‍मा प्रसन्‍न थी।

मेरे इस वाकिये के बाद एक बार फिर शांति छा गयी। फिर आत्‍मा बोली- ये तो तूने अच्‍छा किया। परन्‍तु ये तूने कैसे मान लिया कि मै प्रसन्‍न हूं। तेरे इस काम से वो बाबा और तुम प्रसन्‍न हुऐ। मेरा तो इसमे कुछ हुआ ही नहीं। मुझे इसमें क्‍या मिला? जब मुझे कुछ मिला ही नहीं तो मै कैसे प्रसन्‍न हो सकती हूं। तुमने मुझे कभी प्रसन्‍न करने का प्रयास किया ही नहीं। तुम सब काम अपने लिए करते रहे ।

मैन कुछ देर सोचा और फिर कहा- तेरे को प्रसन्‍न करके मेरे को क्‍या मिलेगा । मै इस आत्‍मा को क्‍यों प्रसन्‍न करूं?

मेरे इस सवाल का जवाब आत्‍मा ने तुरंत दिया- सूकून।

मैने इतनी जल्‍दी जवाब की प्रत्‍याशा नहीं की थी। मैने भी पूछ लिया कि तुम्‍हे क्‍या चाहिए ?

आत्‍मा ने कहा – मुझे तुम चाहिए। तुम दुनिया में खोये रहते हो तो मै अकेली पड जाती हूं। मेरी दुनिया तुम हो। तुम मुझ में मिल जाओ । मेरी दुनिया प्रसन्‍न हो जायेगी। तुम मुझ में समा जाओ। मै तुम्‍हे अपने भीतर समा लेना चाहती हूं परन्‍तु तुम दुनिया में भागते रहते हो। मै दुनिया के दुख से दुखी और सुख से सुखी नहीं होती हूं। मै राह तक रही हूं कि कब तुम मुझ में समाओ और मै प्रसन्‍न हो जाउं।

इस जवाब के बाद में सुन्‍न हो गया। घोर घूप रात फिर दिखाई देने लग गयी। आसमान के तारे फिर टिमटिमाने लगे। एक क्षण रूककर आत्‍मा के जवाब पर सोचा। मनन किया तो पाया कि मुझे मेरी परेशानियो का हल मिल गया। मुझे मेरी खुशी मिल गयी।

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Saturday, May 7, 2022

कहानी- बारात फूलो की

हम लोग थार के मरूस्‍थल में रहते है जहां गरमी और सरदी दोनो तकलीफदेह होती है। यहां गरमीयां बहुत सताने वाली होती है। गरमि‍यों में या तो तेज धूप होती है या फि‍र धूल भरी आंधि‍यां  । दो दो दि‍न लगातार आंधि‍या चलती है । हर जगह धूल ही धूल हो जाती है। इन दि‍नो घर के हर कोने मे धूल मि‍लती है। आप सफाई करोगे उसके कुछ ही देर में धूल आ जाती है। थोडी बहुत धूल तो वैसे ही खाने के साथ हमारे पेट मे चली जाती है। हम हम इसके आदि‍ हो चुके है। अब हमे धूल अपनी सी लगती है। रेत के समंदर के कि‍नारे हमारे लि‍ए हरि‍याली तो कि‍ताबो में ही होती है। इसके बावजूद हम प्रकति‍ के प्रेमी होते है। हमे पेड पौधो से बहुत प्‍यार है। मुझे तो पेड् पौधो का बहुत शौक है। मै अपने घर में गमलो मे पौधे रखता हूं। मेरे पास अधि‍कांश फूलो के पौधे है। उसमें गुलाब, गेंदा, रात की रानी के पौधे है। सरदी और बसंत के दि‍नो में तो मेरे घर की बगि‍या फूलो से आच्छादि‍त रहती है। गरमि‍यों में फूल गरमी से सूख जाते है और पौधो की पत्‍ति‍यां झड जाती है। गरमि‍यो में पौधो को कम ही संभाल पाता हू। हमारे घर के नजदीक ही एक नीम का पूराना पेड् है। इस पेड् के नीचे ही फूल वाले की दुकान है। दुकान तो पेड् के पीछे है परन्‍तु वो पेड् के नीचे ही फूलो का काउंटर सजाता है। मै बेरोजगारी के दि‍नो मे अक्‍सर उसके पास जाकर बैठ जाता था। उसकी दुकान का नाम था बारात फूलो की । मै उससे पूछता कि‍ ये क्‍या नाम रखा है। तो वो बताता कि‍ उसे यह गाना बहुत पसंद है कि‍ रात है या बारात फूलो की। वो कई बार इस गाने का सुनता है। मैने भी दुकान पर रेडि‍यो पर इस गाने को सुना है।

     मै सुबह और शाम उसकी दुकान पर बैठता था। जब ग्राहकी ज्‍यादा होती तो मै उससे बात नहीं कर पाता लेकि‍न जब ग्राहक नहीं होते तो वो मूझ से खुलकर बाते करता । वो अपनी जि‍दगी के बारे में सबकुछ मुझे बता देता है परन्‍तु संकोचवश्‍ अपनी कुछ नि‍जि‍ बाते मेरे से छुपा भी लेता था। उस सड्क पर उसके अलावा और भी फूलो की दुकाने थी। इससे उसका कॉम्‍पीटि‍शन बढ गया था। वो बताता था कि‍ पहले उसके अकेले की दुकान थी परन्‍तु दो और दुकाने खुल जाने से उसकी ग्राहकी पर फर्क पडा है। दोपहर में वो अपने फूलो को काउण्‍टर से दुकान के फ्रीज में रख लेता था। वो दुकान में लेटकर संगीत के साथ उपन्‍यास पढा करता था। मै उससे पूछता कि‍ ये कैसे उपन्‍यास पढता है- मौत का सरगना, चालीस चोर, चोर दरवाजा। वो कहता कि‍ ये उपन्‍यास फि‍ल्‍मो की तरह होते है। मुझे कभी ये उपन्‍यास पसंद नहीं आये।

उसकी दुकान के सामने एक बडा सा घर था। एक क्‍या दुकान के सामने बहुत सारे घर थे। परन्तु दुकान के ठीक सामने भी एक घर था। उस घर में एक बुढि‍या रहती थी। उस बुढि‍या के लि‍ए वो रोज फूल ले जाता था। वो रोज कई तरह के ताजा फूल उस बुढि‍या के लि‍ए ले जाता था। बुढि‍या उसका इंतजार करती रहती थी क्‍योंकि‍ बुढि‍या इन्‍ही फूलो से पूजा करती थी। मैने उससे पूछा कि‍ इन फूलो के पैसे कौन देता है। उसने बताया कि‍ जब भी उसका लडका बाहर से आता है तो मेरा हि‍साब कर जाता है। इन दि‍नो वो यहीं आया हुआ है परि‍वार के साथ। उसका टासंफर इसी शहर में होया हुआ है। उसके बच्‍चे और बीवी भी यहीं आये हुए है। उसके दो बच्‍चि‍यां और एक लडका है। मैने इससे आगे और जानने की इच्‍छा नहीं थी। मै तो उसके पास बैठा रहता। एक लडकी साईकि‍ल पर वहां से नि‍कलती। वो उसकी दुकान पर नही रूक कर आगे वाली दुकान पर रूकती। वो अपनी दुकान के फूलो को व्‍यवस्‍थि‍त करता लेकि‍न वो आगे नि‍कल जाती । पास वाली दुकान से वो फूल मालाऐ ख्ररीदती और नि‍कल जाती । मैने उससे पूछा कि‍ वो कौन है तो उसने बताया कि‍ वो उस बुढि‍या की पोती है। मैने कहा यह रोज यहां से नि‍कलती है। उसने हामी भरते हुए बताया कि‍ यह शि‍व मंदि‍र जाते हुए फूल ले जाती है। रोज वो उसकी दुकान के आगे से नि‍कलती परन्‍तु फूल आगे वाली दुकान से लेती। वो अपनी दुकान के फूल सहेजता परन्‍तु उस लडकी को कभी उसके फूल पसंद नहीं आये। वो कभी भी उसकी दुकान पर रूकी नहीं और कभी उसने भी उस लडकी से पूछा नहीं। वो लडकी नि‍कलती तो वो अपने फूलो को व्‍यवस्‍थि‍त जरूर करता। कि‍सी ग्राहक से बात करता तो बात करता रूक जाता। मैने कभी ज्‍यादा उससे उस लडकी के बारे में नहीं पूछा।

सुबह सुबह वो बुढि‍या को फूल देने जाता तो उसकी छोटी पोती उसे मि‍ल जाती। वो बहुत बातूनी थी। वो उससे तरह तरह के सवाल पूछती । बुढि‍या को फूल देने के बाद कुछ देर वो उसकी पोती से बात करता रहता। उसकी पोती उससे कभी फूलो के बारे में तो कभी फित्‍मो के बारे में पूछती रहती और वो जवाब देता रहता। वो कई बार पूछती आप रोज फूल कहां से लाते हो। वो रोज एक ही जवाब देता था कि‍ बाग से। दोपहर में वो कई बार कि‍सी दुकान से सामान लेने जाती तो उसकी दुकान पर रूक जाती। वो कहती आप दुकान में क्‍यो नहीं बैठते, बाहर क्‍यो बैठते हो। वो कहता कि‍ दुकान पेड के पीछे है इसलि‍ए। वो इस तरह की हजार बाते करती। फि‍र सामने से उसकी मां आवाज लगाती छुटकी। तो छुटकी दौडकर घर चली जाती। उसने कभी भी छुटकी से नहीं पूछा कि‍ तेरी दीदी उसकी दुकान से फूल क्‍यों नहीं ले जाती है। उसकी दीदी जब भी वहां से नि‍कलने वाली होती है। उसके उम्‍मीदो के पर लग जाते। वो सारे ताजे फूल आगे रखता। अपने काउण्‍टर के आगे खूशबू वाला छि‍डकाव भी करता परन्‍तु उसकी साईकि‍ल ठंडे हवा के झोंके के साथ वहां से नि‍कल कर पास वाली दुकान पर रूकती। वहां से फूल लेती और मंदि‍र की ओर चली जाती। वो उसे देखता रह जाता। उसकी हमेशा ईच्‍छा रहती कि‍ वो उसकी दुकान से फूल खरीदे परन्‍तु कभी उसने फूल खरीदने के लि‍ए उसने कहा नहीं और जब भी उसके घर गया तो कभी उससे बात नहीं की। जब वो सामने वाले घर में फूल देने जाता तो छुटकी से बात करते वक्‍त वो उपर की बालकानी में खडी रहती। वो छुटकी से बाते करता रहता। छुटकी पूछती आप और भी लोगो के घरो में फूल देने जाते हो क्‍या । वो कहता – नहीं मै तो सि‍र्फ तुम्‍हारे घर पर ही फूल लाता हूं। वो पूछता छुटकी तुम्‍हे कौन से फूल पसंद है तो वो कहती मुझे तो लाल रंग के फूल पसंद है। छुटकी की दीदी काफी देर तक बालकानी में उन दोनो की बाते सुनती रही। उससे अब रहा नहीं गया। उसने छुटकी से पूछ ही लि‍या कि‍ तुम्‍हारी दीदी मेरी दुकान से फूल क्‍यों नहीं खरीदती है। दीदी ने टेडी नजर से उसे देखा। छुटकी ने दीदी की ओर देखा और चपलता से जवाब दि‍या- आपके पास नीला गुलाब नहीं है। दीदी को नीला गुलाब पसंद है। जि‍स दि‍न तुम नीला गुलाब लाओगे उस दि‍न दीदी जरूर तुम्‍हारी दुकान से फूल खरीदेगी। यह जवाब सुनकर उसने उपर देखा- दीदी खि‍डकी बंद करके अंदर चली गयी। वो खि‍डकी की ओर देखते हुए वापि‍स आ गया।

अब उसके दि‍माग में एक ही बात दौडने लगी- नीला गुलाब। उसने अपने फोन पर देखा – नीला गुलाब। नीला गुलाब उसे दि‍या जाता है जो मुश्‍कि‍ल से दोस्‍त बनता है। उसने देखा नीला गुलाब तो जापान में होता है। भारत में कुछ प्रयोगशाला में उगाया जाता है। भारत में यह अधि‍कांश जगहो पर सफेद फूलो को रंग करके बनाया जाता है। वो कहां मि‍ल सकता है। इन सबके बारे मे उसने पता कर लि‍या। कुछ ही दि‍नो में उसे ठि‍काना मि‍ल गया और उसने नीले गुलाब का ऑर्डर भी दे दि‍या। अब वो इंतजार करने लगा कि‍ जब नीला गुलाब आयेगा तो वो मेरी दुकान से फूल खरीदेगी। वो यह कल्‍पना करने लगा कि‍ उसकी दुकान में एक गुलदस्‍ता नीले गुलाबो का होगा। वो साईकि‍ल चलाते हुए आयेगी और नीले गुलाब देख्‍कर वो साईकि‍ल उसकी दुकान की ओर मोड लेगी। वो नीले गुलाबो के साथ दूसरे फूल भी खरीदेगी।

आज वो बहुत खुश था क्‍योंकि‍ आज उसकी दुकान पर नीले गुलाब आने वाले थे। आज शाम तक नीले गुलाब आ जायेगे और कल सुबह वो अपने काउण्‍टर पर लगा लेगा। यह सोचते हुए वो सामने रोज की तरह फूल देने गया। वहां छुटकी ने बताया कि‍ आज वो यहां से वापि‍स जा रहे है। मैने पूछा क्‍यो । तो उसने बताया कि‍ पापा का टासफर हो गया है। इसि‍लए आज ही शाम को हम कानपूर के लि‍ए नि‍कल जायेगे। उसके पैरो तले से जमीन खि‍सक गयी। वो नीले गुलाबो के बारे में सोचने लगा। वो दौड्कर दुकान पर गया। उसने अपने थोक वि‍क्रेता को फोन लगाया। उसने कहा कि‍ वो जल्‍दी से जल्‍दी पांच बचे तक भेज सकता हुं। उसने अंदाजा लगाया कि‍ सवा पांच बजे गाडी जायेगी तब तक गुलाब आ जायेंगे। उसने सौदा पक्‍का कर दि‍या।

वो दि‍न भर नीले गुलाबो के बारे मे सोचता रहा। वो यह भी सोच रहा था कि‍ वो नीले गुलाब तो उसको दे देगा परन्‍तु वो उस सुख का आनंद नहीं ले पायेगा कि‍ वो साईकि‍ल लेकर उसकी दुकान पर फूल लेने आयेगी। कई प्रकार की कहानि‍यां वो बनाता और बि‍गाडता रहा। उसने शाम को चार बजे के करीब देखा कि‍ सारा सामान गाडी में लोड हो चुका था। एक गाडी में घर के सारे लोग बैठ चुके थे। छुटकी कार के अंदर से बाय बाय कर रही थी। वह बाय बाय करके सीधे टान्‍सपोर्ट बाजार भागा। नीले फूल वही आने वाले थे। वो टांसपोर्ट बाजार पहुच कर नीले गुलाबो का इंतजार करने लगा। पांच बजे फूलो वाली गाडी आयी। उसने जरूरी कार्यवाही जल्‍दी से नि‍पटायी और गुलाब के फूल लेकर स्‍टेश्‍न की ओर दौडा। स्‍टेशन के बाहर पहुंचा तब तक सवा पांच बज चुके थे। स्‍टेशन के बाहर से गाडी खडी दि‍खाई दे रही थी। उसे लगा कि‍ अभी गाडी गयी नहीं है। वो प्‍लेटफार्म टि‍कि‍ट लेकर प्‍लेटफार्म पर पहुंचा। प्‍लेटफार्म पर पहुंचते ही गाडी ने आवाज दे दी। वो दौडकर उनका कोच ढुंढने लगा। एक कोच की खि‍डकी से छुटकी हाथ हि‍लाती दि‍ख गयी। साथ में उसकी दीदी भी बैठी थी। वो दौडकर उसके पीछे गया। वो हाथ में नीले गुलाब लि‍ये दौड रहा था। दौडभाग में कि‍सी से टक्‍कर से गुलाब नीचे गि‍र गये। वो उठाने के लि‍ए झुका तब  तक कोई उस पर पांव रख कर चला गया। उसने सीधे होकर देखा गाडी हवा से बाते करती हुइ उससे दूर चली गयी। वो धीमे कदमो से वापि‍स बाहर की ओर चल दि‍या।