मैदानी इलाको में
गरमी बहुत तेज पडती है। भीषण गरमी में मैदानी ईलाको के लोग ठंडे स्थानो की ओर
घूमने निकल जाते है। खासकर रेगिस्तानी इलाको के लोग भीषण गरमी से राहत पाने के
लिए पहाडो की ओर जाते है। ऐसे मौसम में यदि बर्फ मिल जाये तो सोने पे सुहागा हो
जाय। वहां बर्फ की छुअन रेगिस्तान की गरमी को कुछ क्षणो के लिए भुला देती है।
वहां पहाडो पर गिरी हुई बर्फ को उठाकर एक दूसरे पर मारते है तो उसकी छुअन देह की
सारी गरमी को सोख लेती है। ऐसे कोमल अहसास के लिए ही रेगस्तिानी लोग पहाडो का रूख
करते है। रेगिस्तान में गांवो में आप जाकर देखो तो आपको पीले पीले टीले ही नजर
आते है और गरमीयो की धूप में तो सोने जैसे चमकते है। आपको चारो ओर रेत के टीले ही टीले
दिखते है और कहीं भी कोई पेड पौधा नहीं। आपको कहीं पेड दिखेगा भी तो खेजडी का। दूर
दूर तक जहां तक आपकी नजर जाती है रेत के टीले ही टीले दिखाई देते है। गरमीयो की
तपती धूप में इन टीलो पर आपको पानी जैसी भ्रमजाल वाली आक़ति दिखाई देती है। जिसे
देखकर प्यासे राहगीर को पानी का अहसास होता है परन्तु वह पानी होता नहीं है। रेत
के टीलो में आपके पसीने से टपकने वाला ही पानी होता है और कहीं पानी नहीं होता है।
मैं गरमीयो के कई
बार ऐसे टीलो के बीच गया हूं। मैं तपती दोपहर में शौक से टीलो पर नहीं गया बल्कि
सरकारी काम से जाना पडा। सरकारी काम से एक तहसील से दूसरी तहसील जाते है तो आपको
टीलो में से गुजरना होता है। एक यही कारण है जिससे मुझे भरी दोपहरी में कई बार इन
टीलो में जाना पडा। एक बार मेरे मामा के मि्त्र मुझसे मिलने मेरे आफीस आये तो रेत
के टीलो के बारे मे उनकी बात सुनकर मै दंग रह गया। वैसे तो उनका नाम जयशंकर था
परन्तु प्रेम का नाम चौपाया था। चौपाया मामा ने बताया कि मै और मेरा भाई दोपहरी
में नंगे पैर रोही में चले जाते है। रेगिस्तानी इलाको को गांव और शहर के बाहर के
इलाके को रोही कहा जाता है जो प्राय जंगल होता है। मैने पूछ लिया दोपहर में आप
रोही में क्या करते हो। उन्होने कहा कि हम दोनो नंगे पैर जाते है और टीलो पर
जाकर लेट जाते है। तपती हुई धूप हमारी देह को छुती है तो हमे बडा आनंद आता है और
हमारी देह विषाक्त किटाणुओ से मुक्त हो जाती है। गरमीयों में टीलो पर रेत इतनी
गरम होती है कि आप पापड सेक सकते हो। ऐसी धूप में वे दोनो टीलो पर लेट जाते थे।
उन्होने बताया कि जब धूप ढलने लगती तो हम घर को लौटते। मै जब चौपाया मामा के बारे
में सोचता हूं तो मेरी आंखे आश्चर्य से फटी रह जाती । इतनी धूप में उनका बदन पूरी
तरह सिक जाता होगा परन्तु उनके चेहरे और देह पर किसी जलन का चिन्ह दिखाई नहीं
देता था। उनका चेहरा पूरी तरह लाल दिखाई देता था।
रेत की छुअन का
अहसास तो मैने भी किया है परन्तु चौपाया मामा जैसा नहीं । रेत जैसे दिन में तपती
है राज को उतनी ही जल्दी ठंडी हो जाती है। मै बचपन में एक बार अपने मोहल्ले के
ताउजी के साथ बजरंग धोरा गया था। बरसात के बाद के दिन थे जब थोडी थोडी ठंड शुरू हो
जाती है। वहां एक बडा सा टीला था। हम सभी मित्र वहां टीले पर खूब घूमे। बिना चप्पल
हम रेत पर घूम रहे थे। ठंडी ठंडी छुअन हमे रोमांचित कर रही थी। इस छुअन को शब्दो
में बयां नहीं किया जा सकता था। हमने एक बडा गडडा खोद एक मित्र को खडा कर उसमें
रेत डाल दी। मित्र आधा रेत के अंदर था। ऐसा हम सभी ने बारी बारी से किया। रेत से
भरे गढढे में रेत की छुअन पूरे बदन को कोमलता का अहसास देती थी। ऐसी छुअन बर्फ में
भी नहीं होती है। भरी गरमीयों में रात को आपको रेत इतनी ही ठंडी मिलेगी। यहां जन्मे
साहित्यकारो ने तो ठंडी रात में रेत के टीलो से दिखाई दे रहे चांद पर बहुत सारा
काव्य लिखा है।
ठंड के दिनो में तो
रात को रेत बर्फ जैसी ठंडी हो जाती है। उस पर नंगे पांव रखना भी मुश्किल हो जाता
है। एक बार ठंड में मैं हमारे शहर के नजदीक पुनरासर धाम गया । वहां भी बहुत सारे
रेत के टीले है। रात और सुबह तो वहां पैर रखा ही नहीं जा रहा था। जैसे ही धूप
निकली रेत में गरमी आने लगी। सुबह की धूप मे हम सब टीलो पर लेट गये। ऐसा धूप सेवन
मैने एक बार समुद्र के किनारे किया था। वहां लोग धूप में समुद्र के किनारे पर लेटे
हुए थे। हम जब पुनरासर में लेटे हुए थे तो हम वो अहसास हो रहा था जो बिरलो को ही
मिलता है। रेत ठंडी से गरम हो रही थी और उसकी छुअन हमारी देह में रोमांच पैदा कर
रही थी। सुबह हम जब रेत के टीले पर लेटे हुए थे तो उस समय धूप कम थी तो टीले पर एक
कीट जैसा जानवर गोबर के ढेले को लुढकाता हुआ ले जा रहा था। यह रेगिस्तान के टीलो
में पाया जाता है। हम सब की नजरे उसी कीट पर थी। वो उसे लुढकाता हुआ टीले के उस
पार ले गया। यह द़श्य कैमरे में कैद करने लायक था। हमने कैद भी किया। मै रेत की
छुअन की वो याद हमेशा संजोये रखता हूं।
बचपन में तो जानबुझ
कर रेत और मिटटी में खेलते थे परन्तु एक बार तो हम वैसे ही रेत में नहाये जा रहे
थे। हमारे शहर मे एक बार पांच दिन तक लगातार धूल भरी आंधी आयी। आंधी ऐसी कि पांच
दिन में एक क्षण के लिए भी नहीं रूकी। रात को छत्त पर सोते तो सुबह धूल से सने
हुए होते। चाय भी हमे कमरो में छिपकर पीनी पडती थी ताकि चाय मे रेत न गिर जाये।
नहाने के कुछ देर बाद ही हम सब रेत से सने हुए भूत जैसे दिखाई देते थे। बालो से
लेकर चेहरे और कपडो में रेत ही रेत हो जाती थी। घर साफ करते थे तो झाडू से रेत हटते
ही वापिस बिछ जाती। जहां झाडू नहीं लगाया वहां तो रेत के छोटे छोटे टीले बन गये।
हम लोग ने उस आंधी को रोकने के लिए कई तरह के टोटके भी किए। किसी ने सुबह सुबह घर
के आगे लोटे से पानी गिराया। हमारे पडोसी ने तो अपने छोटे बच्चे को नंगा करके छत्
पर घूमाया। मंदिर के पुजारी जी ने बडे
वाला शंख् शाम को बजाया परन्तु आंधी लगातार चलती रही। पांचवे दिन जब सुबह उठे तो
हवा बंद थी तो सबने राहत की सांस ली।
रेगिस्तान में रेत
की छुअन का अहसास रूमानी होता है। और किसी के लिए रेत परेशानी का सबब हो सकती है
परन्तु यहां के लोगो के लिए तो वह संगिनी है। वो जीवन के साथ साथ चलती है। आप उसे
लाख बुरा मान सकते हो परन्तु आप उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते हो। वो आपको अपनी
उपस्थिती का अहसास कराती रहेगी।
--------
No comments:
Post a Comment