मै जब दसवीं में पढता था तो मेरे नानाजी रिटायर हो गये थे। मै सोचता था कि नानाजी रिटायर होने के बाद क्या करेंगे। यह सोचना नानाजी का काम था परन्तु मेरे मन में जिज्ञासा थी क्योकि नानाजी बिना काम कभी बैठते नहीं थे। रिटायरमेंट के बाद कुछ दिन तो वे अपने आफिस किसी न किसी काम से जाते रहे परन्तु बाद में वो भी बंद हो गया। हमारे शहर मे उन दिनो यूनिवर्सिटी खुली थी। मेरे नानाजी फिर उस यूनिवर्सिटी में काम करने के लिए जाने लग गये। नानाजी साईकिल पर रोज यूनिवर्सिटी जाते थे। मैं अपने दूसरे भाईयो के साथ ननिहाल ही रहता था। रात को नानाजी हम बच्चो से बारी बारी से पैर दबवाते थे। नाना जी की मौसी भी वहीं रहती थी। उन दिनो आज की तरह न तो मोबाईल था और ना ही टीवी। नानाजी की मौसी रात को हम सब बच्चो को कहानियां सुनाती थी। रात को आंगन में नानी मौसी की खाट लगी रहती थी। उस खाट के आस पास हम सभी बच्चे बैठ जाते थे और नानी मौसी कहानी सुनाती थी। आज के टीवी शो की तरह हम में से कोई भी बच्चा कहानी छोडना नहीं चाहता था। नानाजी का कमरा सामने ही था। जब कभी पैर दबाने की मेरी बारी आती तो मुझे कहानी छोडने का बडा अफसोस होता क्योंकि नानी मौसी ठीक उसी समय कहानी सुनाती थी। मै पैर दबाते दबाते अपनी गर्दन उंची करके कमरे के बाहर झांकता। नानाजी आंखे बंद किये मेरे को डांट देते तो मै फिर पैर दबाने मे लग जाता। कई बार नानी मौसी देख लेती तो वो नानाजी को मुझे भेजने के लिए कह देती। मैं दौडकर कहानी सुनने आ जाता।
नानाजी का यूनिवर्सिटी जाने का सिलसिला ज्यादा
नहीं चला। फिर वो दिनभर घर में ही कुछ न कुछ करते रहते। कभी अपनी आफीस की पूरानी
फाईले देखते तो कभी कोई किताब पढ्ते। रविवार को विशेष पूजा करते । मेरे से प्रसाद
के लिए बाजार से लडडू मंगवाते। हम सब बच्चे नानाजी पूजा करते तो पीछे बैठ जाते ।
नानाजी पूजा करने में तीन-चार घंटे लगाते । हम तीन चार घंटे लगातार इंतजार करते
लडडू खाने के लिए। नानाजी पाठ करते हुए कई बार पीछे झांक कर देखते। हम पीछे बैठे
होते। नानाजी समझ जाते कि हम सब लडडू के लिए बैठे है परन्तु नानाजी पूजा में कोई
कसर नहीं छोडते थे। पूरे चार घंटे पूजा करते थे। उसके बाद वो लडडू हम सब में
बांटते और हम बडे चाव से प्रसाद का लडडू खाते।
नानाजी हम बच्चो में घुलेमिले तो नहीं थे परन्तु
हमारी बातो में रूचि बहुत लेते थे। खासकर हम अपनी पढाई के ईतर जो भी करते उसमें
नानाजी पूरी रूचि लेते थे मसलन मेरे भाई को पेंटिग का बहुत शौक था तो वे उसे
पेंटिंग के नये नये आयडिया देते थे। मै कोई कविता लिखता तो उसमें बताते ये ऐसे होनी
चाहिए थी। अच्छी कविता अखबारो में छपवाने के आयडिया भी देते थे। अब रिटायरमेंट के
बाद नानाजी के पास कोई काम नहीं था तो भी वे कोई न कोई काम निकाल लेते थे। नानी और
नानी मौसी दोपहर को सत्संग में जाती तो पीछे घर में हम बच्चे और नाना रह जाते।
नानाजी फिर हमारे साथ नये नये प्रयोग करते । एक बार तो नानाजी ने कहा कि चलो घर पर
भूजिये बनाते है। मेरे को कह दिया कि स्टोव जला। पहले गैस वगैराह की सुविध आम
नहीं थी। हमारे यहां भी गैस नहीं थी। हम केरोसीन वाला स्टोव जलाते थे। दूसरो को
बेसन घोलने और दूसरे काम के लिए कहते। कढाई स्टोव पर चढाने के बाद उस पर झारी
लगाकर उससे भूजिया निकालते । भूजिये बनते देख नानाजी के चेहरे पर खुशी आ जाती।
नानी आने के बाद गुस्सा होती परन्तु चाय के साथ नानी भी भुजियो के मजे लेती। कई
बार तो कोई मिठाई बनाने के लिए पूरे घर भर को लगा देते। बाजार से मावा और दूध लाते
। मेरी मां, मौसी और मामी भी इसी काम में लग जाते। कई बार तो मिठाई बन जाती और कई
बार खराब हो जाती। परन्तु हम सब इस काम का आनंद लेते ।
एक बार दोपहर को मेरे को कहा कि स्टोव जला।
मैने स्टोव जलाया। फिर उस पर कढाई चढाने को कहा। फिर नानाजी ने जैसा कहा करता गया।
उसमे तेल डाला, बेसन डाला, चीनी डाली और नींबू डाला। मैने नानाजी से कहा हम क्या
बना रहे है तो नानाजी ने कहा देखते जाओ क्या बनता है। कुछ देर बाद नानाजी उसको
पका कर नीचे उतारा और मेरे से कहा चखो – कैसा बना है। मैने पूछा- नानाजी हमने क्या
बनाया है। नानाजी ने कहा – पहले चखो। फिर नाम रखते है। मैने चखा। मैने अपना मुंह
बनाते हुए कहा कि – अजीब सा स्वाद है। कुछ खटटा है कुछ मीठा है और थोडा थोडा तीखा
भी है। नानाजी कहा बन गया। यह हमारी नयी डिश है। अब इसको बडे स्तर पर बनायेगे।
मैं कुछ समझ नहीं पाया और खेलने चला गया।
गरमीयो में हमारे स्कूल की छुटिया थी। नानाजी
ने हमे नया टास्क दे दिया। उन्होने दोपहर को हम सबको बुलाया और कहा कि चलो कुछ
नया करते है। उन्होने पूराने अखबार मंगवाये। फिर कहा कि हम लिफाफे बनाते है।
नानाजी ने अखबार काटकर हम सबको लिफाफा बनाना सिखाया। लिफाफा चिपकाने के लिए उन्होने
गोंद का प्रयोग नहीं किया। उन्होने हमे आटे से लई बनानी सिखाई। बहुत सारी लई बना
लेते फिर उससे हम लिफाफे चिपकाते। यह लिफाफे उन दिनो दुकान वाले काम में लेते थे। दस
– पन्द्र लिफाफे बनाने के बाद मुझ से कहा कि सामने दुकानदार से पूछ कर आओ कि इस
प्रकार के लिफाफे उसके काम आ जायेंगे क्या। मै उससे पूछ कर आया और उसने हां कर
दी। फिर क्या था नानाजी ने बडे स्तर पर यह काम शुरू कर दिया। हमे सुबह से शाम तक
इसी में लगाकर रखते। अलग अलग नाप के लिफाफे हमसे बनवाते। लिफाफो की पहली खेप तैयार
हो गयी तो मै सामने वाले दुकानदार को दे आया। उसको पसंद भी आ गये। अब नानाजी का
हौसला और बढ गया। उन्होने एक सप्ताह में बहुत सारे लिफाफे तैयार करवा दिये। हमारा
ननिहाल बाजार के बीच में था। ननिहाल के चारा ओर दुकाने ही दुकान थी।
एक सप्ताह में जितने लिफाफे तैयार होते । मै
साईकिल लेकर निकलता हर एक दुकान में देता जाता। लगभग हर दुकान वाला ऐसे लिफाफे
खरीद लेता। सामने दुकानदार के बगल में ही एक लकडी की टाल थी। फोग की लकडियो की
दुकान को हमारे यहां टाल कहा जाता है। पहले अधिकांश घरो में ईधन के रूप में फोग की
लकडियो का ही प्रयोग होता था। उस टाल पर एक युवा लड्का अशोक बैठा रहता। केवल कच्छा
पहने हुए बाकि सारे बदन पर कुछ नहीं होता था। सरदी और गरमी में वह ऐसे ही रहता था।
उसके टाल के आगे से मै निकलता तो वो दो चार लिफाफे खींच लेता था। मेरे को बहुत
गुस्सा आता था परन्तु वो मुझ से बडा था तो मै कुछ कह नहीं पाता था।
शाम को नानाजी हिसाब करते । जितने भी पैसे आते
वो सब हम बच्चो के गुल्लक में डाल दिये जाते। मै नानाजी को बताता कि वो टाल वाला
लडका लिफाफे खींच लेता है। नानाजी कहते – वो बेवकूफ है। नंगा बैठा रहता। मैने कहा
नानाजी वो ऐसा क्यों है। नानाजी बताते कि उसकी शादी नहीं हो रही है। क्योंकि वो
लकडी की टाल पर बैठता है। इसीलिए वो पागलो जैसी हरकते करता है। तुम पर उस ध्यान
नहीं दिया करो।
शाम को नानाजी को बताया। नानाजी ने भी आश्चर्य
किया। नानाजी को भी चैन नहीं था। उन्होने बाहर निकल कर पडोसी दुकानदार से पूछा तो
उसने बताया बाउजी । खुशी की बात है। अशोक की शादी तय हो गयी है। इसीलिए वो सीधा
बनकर बैठा है। नानाजी ने अंदर आकर कहा – अपने तो छुटिटया खत्म हो गयी। पर कोई बात
नहीं अशोक की तो शादी तय हो गयी। हम भी उठकर चले गये और अपनी किताबे बस्ते तैयार
करने लग गये।
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