Friday, September 29, 2017

दो कविताऐ

(एक)

मैं शांत पानी होना चाहता हूं
जिसके उपर दोपहर की धूप
बिछ जाये
चिड़ियायें चहचहाट करती हुयी
मेरे उपर से निकल जाये
सन्नाटे की आवाज मेरे उपर
घूमती रहे
बकरीयो के मिमियाने की आवाज
मेरे किनारो का छुकर निकल जाये
शाम को पहाडो की लंबी छाया
मेरे उपर गिर जाये
पर
कोई कंकर में मेरे उपर
गिर न पाये
जो मेरी सतह पर
कई भंवर बनाता जाये।
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(दाे)
मेरी आत्मा
अकेला रहना चाहती है
बिलकुल अकेला
किसी से बात नहीं करना चाहती है
मन से भी नहीं
जब मेरी देह सोती है
तो आत्मा बात करती है
अपने आप से
अपने आपको देखती है
खरोंचोे से लहुलहान है
आत्मा की खरोंचो से
लहू रिस रहा है
वो कुछ नहीं कर सकती
देह के बिना
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