Monday, November 11, 2019

धूप की लकीर


                     धूप की लकीर 
हम किराये के घर मे रहते थे। इस किराये के घर मे ही हम भाई बहिनो का बचपन बीता था या यूं कहे कि बचपन की सारी ऊधम हमने इसी किराये के घर मे मचाई थी। इस मकान की सबसे अच्छी यह बात थी कि इसकी छत बहुत लंबी थी परन्तु मकान बहुत छोटा था। दरअसल इस मकान के पिछवाड़े मे बड़े बड़े गोदाम थे जिसकी छत हमारी छत मे ही शामिल थी। हमारे मकान की छत सबसे नीचे थी। चारो तरफ ऊंचे ऊंचे मकान थे। सर्दियो मे हमारी छत पर धूप मुश्किल से ही आ पाती थी। छत के एक ओर पडोसी के मकान की रसोई की बड़ी बड़ी चिमनियां थी। ठिठुरती सर्दियो मे सवेरे सवेरे उन चिमनियो मे से गुनगुनी और कच्ची धूप की एक लकीर निकलकर हमारी छत पर गिरती थी। मै कोई  सात आठ बरस का रहा होउंगा। कंपकंपाती सर्दी की एक सुबह मे उन चिमनियो के बीच मे से आ रही धूप की लकीर मे खड़ा होकर धूप सेक रहा था। धूप की लकीर इतनी पतली होती थी कि उसमे मेरी पूरी देह आ नही पाती थी। धूप चेहरे पर होती तो मेरे चेहरे पर मुस्कान फैल जाती। थोड़ी देर मे छोटा भाई छत पर आता। उसके सिर पर छोटे छोटे बाल हुआ करते थे। उसके स्वेटर मे से नीचे निकले हुए कमीज को पकड़ कर मेरे को देखता रहता। मै मेरे धूल से सने चेहरे पर पीली सी धूप गिरने से उसको देखकर मै अपने होठो के बीच सफेद दातं दिखाकर अपने होठ फैला देता। वो कड़ाके की ठंड से ठिठुरता वहां खड़े मुझे देखता रहता। मै हाथ के ईशारे से उसे अपने नजदीक बुलाता। उसे अपने आगे खड़ा कर देता । अब धूप की लकीर उसके चेहरे पर गिरने लगती। हम दोनो खिलखिलाकर हसंते रहते।  कड़ाके की ठंड मे हमारी बड़ी सारी छत पर आती मुट्ठी भर धूप को हम दोनो बांट लेते।

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