Sunday, October 3, 2010

बी.के. स्‍कूल की कचौरी


कुछ स्‍कूले खास होती है और उनकी पहचान भी खास होती है। दून स्‍कूल   और ऐसे कई स्‍कूल है जो अपनी खास पहचान रखते है। मै जिस स्‍कूल में पढ़ा उस स्‍कूल की भी खास पहचान है। दून स्‍कूल पढ़ाई के लिए जाना जाता होगा परन्‍तु मेंरा स्‍कूल कचौरियों के लिए जाना जाता है। मेरे शहर की कचौरियां वैसे ही बहुत प्रसिद्ध है परन्‍तु उसमें भी बी.के. स्‍कूल की कचौरी की विशेष महिमा है। जी हां । मेंरा स्‍कूल कचौरियों के लिए आज भी जाना जाता है। बीकानेर में किसी मेंहमान के लिए कचौरियों की मेहमानवाजी खास लोगो के लिए की जाती है । उसमें भी बी.के. स्‍कूल की कचौरी की मेहमानवाजी आपने कर दी तो मेहमान खुश होकर ही जायेगे। अपने बॉस को खुश करने के लिए भी लोग बी.के. स्‍कूल की कचौरियां ले जाते रहे है। आपके खास मेहमानो की खातेदारी में आपने बी.के. स्‍कूल की कचौरी नही परोसी तो वे नाराज भी हो सकते है। बीकानेर के बाहर भी जब बीकानेरी स्‍वाद के चर्चे होते है तो बी.के. स्‍कूल की चर्चा सबसे पहले होती है।

      इसका मतलब ये कतई नहीं कि मेरे पिताजी ने मुझे हलवाई की स्‍कूल में भर्ती करवाया या मेरी स्‍कूल में कचौरियां बनाने की कोई ट्रेनिंग दी जाती थी। ऐसा बिलकुल नहीं है। मेंरा स्‍कूल सौ साल से भी ज्‍यादा पूराना है। संभवत: मेंरे शहर का सबसे पूराना स्‍कूल है। इस स्‍कूल में सिर्फ बणिये के बच्‍चो को ही प्रवेश दिया जाता था। उसके बाद जगह बचती तो ब्राहम्‍णो को प्रवेश दिया जाता । मेंरे पिताजी ने बहुत जतन से इस बी.के. स्‍कूल में मेंरा दाखिला करवाया। मेरे स्‍कूल की एक ओर खास बात थी कि इस स्‍कूल में लड़कियो और महिलाओ का प्रवेश प्रतिबन्धित था। इस मामले में इतनी सख्‍ती थी कि किसी महिला का चित्र भी स्‍कूल में नहीं लगाया जाता था चाहे वो किसी महिला समाज सुधारक या नेता का ही क्‍यो न हो। स्‍कूल का कोई भी सोच रहा होगा परन्‍तु हमें जरूर महसूस होता था कि महिला शायद कोई आफत की पुडि़या का नाम है।

      यह प्रश्‍न भी उठना स्‍वभाविक है कि जो स्‍कूल पढ़ाई के लिए इतना जाना जाता हो तो उसकी पहचान कचौरी से कैसे होने लगी। दरअसल हमारी स्‍कूल के नीचे एक कचौरी की दुकान थी। हलवाई के हाथों में जादू था। जब वो कचौरी बनाता था तो उसकी खूशूब आस-पास के मोहल्‍लो तक जाती थी। यहां तक कि हमारी क्‍लास तक भी आती थी। यह अलग बात थी कि इस बाधा को रोकने के  लिए हमारे मास्‍टरजी कुछ नहीं कर सकते थे। जब लंच टाईम हो रहा हो और ऐसे खूशूब आ रही हो तो कि मास्‍टरजी के शब्‍द बाण सिर के  उपर से ही निकलते थे। लंच टाईम में हम लोगो को घर जाकर खाना खाने की छुट थी। लंच टाईम में बाहर निकलते ही कचौरी की दुकान पर जबरदस्‍त भीड़ देखी जा सकती थी। बच्‍चो के बराबर कचौरी खाने वालो की भीड़ होती थी। कुछ को कचौरी मिल जाती तो कुछ को ऐसे ही लौटना पड़ता था। हमारी स्‍कूल के बीच कुछ बच्‍चे भी लंच में कचौरी चट करते । लंच टाईम तीस मिनट का होता था और हमे घर जाने की जल्‍दी होती थी इसलिए कचौरी की दुकान पर नजर भर हम देख ही पाते थे। हमारे शहर में बणियों को आर्थिक रूप से मजबूत माना जाता था। बणियो के बच्‍चो को लंच टाईम में कचौरी की दुकान पर देखा जा सकता था। हमें यह सिखाया गया कि ठेले पर या दुकान पर खड़े होकर कुछ खाना अच्‍छी आदत नहीं होती है। इसलिए मै और मेंरे दोस्‍त सीधे घर चले जाते और खाना खाकर लौट आते । घर पर भी कभी बहुत खास मेहमान आने पर हमारे घर पर भी बी.के. स्‍कूल की कचौरी आती परन्‍तु यहां भी हमारा नाक हमारी जीभ के मुकाबले फायदे में रहता । हम सिर्फ खूशूबू ही ले पाते थे। उस समय ठेले या दुकान पर खड़े होकर खाने को अच्‍छी आदत नहीं समझते थे परन्‍तु ये नहीं जानते थे कि ऐसी सीख मध्‍यमवर्गीय मजबूरियों के चलते ही दी जाती थी।

      बच्‍चे का मन तो कच्‍चा होता है। घर वालो की सीख पर मैं ज्‍यादा अडिग नहीं रह पाया। घर से मिलने वाले पांच दस पैसे इस उम्‍मीद में इकटठे करने शुरू किये कि जब भी यह एक रूपया बनेगा , मैं भी बी.के. स्‍कूल की कचौरी खाउंगा। पैसे मिलने की रफतार इतनी मंद थी कि इसमें एक साल भी लग सकता था। परन्‍तु मन में था विश्‍वास कि जब भी एक रूपया होगा ,बी.के. स्‍कूल की कचौरी खाउंगा। पैसे जमा करता गया । पचहत्‍तर पैसे हो चुके थे। रूपया होना ज्‍यादा दूर नहीं था। पर एक दिन स्‍कूल से निकलते ही मैंने देखा कि कचौरी की दुकान के पास ही एक ठेला लगा है जिस पर लिखा है बी.के. स्‍कूल की कचौरी पचहत्‍तर पैसे में। दुकान में वहीं दाम था एक रूपया परन्‍तु ठेले वाले दुकान के ग्राहको में सेंध लगाने के उद्धेश्‍य से यह ठेला लगाया। मुझ से रहा न गया। मैं अपने पचहत्‍तर पैसे ले आया और बी.के. स्‍कूल की कचौरी का मजा लिया। ठेले वाले ने कोई एमबीए नहीं किया था परन्‍तु वो मार्केटिंग के गुण अच्‍छी तरह से जानता था। जल्‍दी ही उसके ठेले पर भी भीड़ लगने लग गयी। जो एक रूपया खर्च नहीं कर पाते थे वो ठेले वाले से कचौरी लेते थे। परन्‍तु बणियो के बच्‍चे दुकान वाली ही कचौरी खाते । मैं जब पचहत्‍तर पैसे होते ठेले से कचौरी खा लेता ।
 मन में टीस थी कि कचौरी तो बी.के. स्‍कूल के दुकान की ही खानी है। मैं बणियो से कम थोड़े ही हू। इस बार मैंने सोच लिया कि पूरा एक रूपया इकटठा करूंगा। इस बार मन को पूरी तरह से कंट्रोल में रखा । पचहत्‍तर पैसे होने के बाद समय कठिनता से गुजरा परन्‍तु अहिस्‍ता अहिस्‍ता मैने एक रूपया कर ही लिया। आज सुबह एक रूपया लेकर स्‍कूल गया। लंच टाईम मे बाहर निकला। कचौरी की दुकान पर गया। मन में बहुत उत्‍साह था कि आज वास्‍तव में बी.के. स्‍कूल की कचौरी खाउंगा। परन्‍तु जैसे ही मैंने नजरे उपर उठाई, दुकान पर एक सूचना लगी थी तेल मंहगा होने के कारण आज से कचौरी 1.25 पैसा। फिर मैंने नजर घुमाई ठेले पर तो वहां पर्दा लटक रहा था आज से कचौरी 1.00 रूपया। मेंरे मन ने 25 पैसे का और इंतजार करने से मना कर दिया और मेंरे कदम ठेले की ओर चल पडे। मैंने ठेले से कचोरी खाई। ऐसा चलता रहा। जब दुकान पर 1.50 की कचौरी हुई तो ठेले पर 1.25 पैसे की । मैं साल में तीन या चार कचौरी खाता परन्‍तु 25 पैसे के अंतर को कभी पाट नहीं पाया।

      समय चक्र घूमा । मेंरी स्‍कूल की पढ़ाई पूरी हुई मैंने कॉलेज में दाखिला ले लिया । मेरे पिताजी ने शहर के सबसे अच्‍छे कॉलेज में दाखिला दिलाया। मैं पिताजी की मजबूरियो को समझता । परन्‍तु मैं जब अव्‍वल नंबरो से पास होता तो मेरे पिताजी की सारी चिंताऐ दूर हो जाया करती थी। पिताजी ने अब मुझे महीने की पॉकेट मनी भी देना शुरू कर दिया था। महीने के पांच रूपये मुझे मिलते थे । एक बार महीना खत्‍म होने का था । मेरे पास तीन रूपये बचे थे। सोचा आज बी.के. स्‍कूल की कचौरी खा ली जाय। मैं अकेला ही अपनी पूरानी स्‍कूल पहुंचा। दुकान के नजदीक पहुचा तो देखा तो पाया कि दुकान पर वही ठेले वाला बैठा है। पूछने पर मालूम हुआ कि उसने वो दुकान खरीद ली है। बातचीत के बाद कचौरी का ऑर्डर देने वाला ही था कि मेरी नजरे एक बार फिर दुकान के सूचना पटट पर थी जहां लिखा था कचौरी 3.25 रूपये । मैने फिर नजरे घुमाई वहां एक और ठेला लगा था जहां पर्दा हवा में लहरा रहा था । लिखा था कचौरी 3.00 रूपये। आज फिर 25 पैसे का अंतर में नहीं पाट पाया और ठेले से कचौरी खाई।

      फिर लंबे समय तक मैं कचौरी खाने वहां नहीं गया। कुछ ही दिनो बाद मैंने एमबीए की प्रवेश परीक्षा दी। अव्‍वल अंको के साथ मेंरा सलेक्‍शन हो गया। मेरे पिताजी की खुशी का ठिकाना नहीं था। उनको आंखे भी खुशी से नम हो गई थी। जब आगे की फार्मेलिटीज की बारी आई तो देखा कि नंबर एक इंस्‍टीयूट में केवल डोनेशन देने वालो को ही प्रवेश मिलेगा बाकि को सरकारी कॉलेज में । मैंने पिताजी को कह दिया था कि मैं सरकारी कॉलेज में ही दाखिला लूंगा। पिताजी नंबर एक इंस्‍टीटयूट में मेरा दाखिला चाहते थे। मेंरे मार्कस भी इस लायक थे। परन्‍तु डोनेशन बहुत ज्‍यादा था। मैंने सरकारी कॉलेज की हां करके पिताजी की मुश्किल आसान कर दी। सरकारी कॉलेज में दाखिला लेने का गम मुझे नहीं था। मुझे मेरे टेलेंट पर भरोसा था। बहुत खुश था। आज जेब में दस रूपये डालकर गया कि खुशी में बी.के. स्‍कूल की कचौरी खाउंगा ।
      आज बी.के. स्‍कूल पहुंच कर  सीधे दुकान गया। आज सूचना पद्ट मैंने नहीं देखा था। हांलांकि कचौरी की कीमत 6 रूपये हो चूकी थी। मैंने ऑर्डर दे दिया। मन में सोचने लग अब मंजिल मिल गई। एमबीए करने के बाद घर की सारी मुश्किले हल हो जायेगी। आज मैंने 25 पैसे का अंतर पाट दिया है। दुकानदार ने कचौरी कागज पर रखी और उस पर दही उड़ेला। वह उसमें मसाला डाल कर मेरी ओर हाथ किया । मेरी नजर दुकान के बाहर पड़ी। बाहर एक बच्‍चा जो ज्‍यादा गरीब तो दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन ऐसा जरूर लग रहा था कि उसे आर्थिक हालात ठीक नहीं है। लोगो द्वारा कचौरी खाकर फेंके हुए कागजो को चाट रहा था। किसी में उसे कचौरी का टुकड़ा मिल जाता । कुछ को वो वैसे ही चट कर जाता था। दुकानदार ने जैसे ही मेरे हाथ में कचौरी दी। मैं तुरंत उठा और दुकान से बाहर निकल कर उस बच्‍चे को कचौरी दे दी। वो शायद भूखा था। उसे वो जल्‍दी जंल्‍दी खा रहा था। मैंने दुकानदान को 6 रूपये का भुगतान किया। चार रूपये लेकर बाहर आ गया। वहां कुछ और ठेले लग गये थे। एक ठेले पर परदा लहलहा रहा था कचौरी चार रूपये । मेरे कदम उस तरह मुड़ गये। मेरे कदमो की चाल बता रही थी कि 25 पैसे का अंतर अब दो रूपये हो गया है। 

13 comments:

  1. बढि़या मार्मिक रचना है। बी. के. स्‍कूल की कचौरियां खाने का मन होने लगा है। बीकानेर से दिल्‍ली 'पार्सल' करा दीजिए। वैसे बीकेनेर का स्‍वाद भुजिया के माध्‍यम से पा चुका हूं, लेकिन कचौरी का नहीं... ओह... मुंह में पानी आ गया... वैसे अभी तक आपको बी. के. स्‍कूल की कचौरी खाने का मौका मिला कि नहीं!

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  2. प्रिय मनीष भाई
    क्या शानदार संस्मरण है , जो एक शानदार कहानी भी है । साधु …


    मेरी नजर दुकान के बाहर पड़ी। बाहर एक बच्‍चा जो ज्‍यादा गरीब तो दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन ऐसा जरूर लग रहा था कि उसके आर्थिक हालात ठीक नहीं हैं । लोगो द्वारा कचौरी खाकर फेंके हुए कागजो को चाट रहा था। किसी में उसे कचौरी का टुकड़ा मिल जाता । कुछ को वो वैसे ही चट कर जाता था।
    प्रेमचंद की बूढ़ी काकी याद आ गई , सचमुच ।
    बहुत मार्मिक दृश्य खींच दिया , यहां आपने ।

    … और समापन ! लगा , इंसान और भी हैं अभी संसार में !

    मैं तुरंत उठा और दुकान से बाहर निकल कर उस बच्‍चे को कचौरी दे दी। वो शायद भूखा था। उसे वो जल्‍दी जंल्‍दी खा रहा था। मैंने दुकानदान को 6 रूपये का भुगतान किया। चार रूपये लेकर बाहर आ गया। वहां कुछ और ठेले लग गये थे। एक ठेले पर परदा लहलहा रहा था – कचौरी चार रूपये । मेरे कदम उस तरह मुड़ गये।
    मेरे कदमो की चाल बता रही थी कि 25 पैसे का अंतर अब दो रूपये हो गया है।

    आंखें सजल हो गई भाई !
    एक खेल लेखक इतना प्रभावी कहानीकार भी है !
    ईश्वर से आपके अंदर के संवेदनशील इंसान के लिए हार्दिक शुभकामनाएं हैं ।
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  4. मनीश भाई!
    बडा ही रोचक व मार्मिक प्रसंग हॆ,आपके ’बी.के.स्कूल की कचॊरी’.

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  5. apne shahr ko aur uski khasiyat ko itne badhiya star tak le jaane ka apka pryas sraahneey hai ...hum bhi bikaner se hai...ummeed hai yaha ki aur bhi vishesh jaankiya aap dikhayenge.

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  6. Ek bar Bol to dete BHAI
    B.k.School ki Kachori Jub Kahte tab Hazir kar dete.
    Aage bhe yaad kar Lena kabhi jub koi fark mitana ho
    Kisi or k dukh ma haath batana ho
    Or Haq hota bhe ha wohi jo waqt pe jatana ho
    Nice collection or emotional words from beginning to end

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  7. Manishji I got involved.very nice story and Heart touching

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  8. शानदार रचना ।

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  9. बेहद मार्मिक रचना और लॉक डाउन के दौरान बी के स्कूल बहुत याद आ रही है।

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  10. वाह मनीष भाई वाह खूब याद दिलाई बी के स्कूल की कचोरी

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